Monday 24 December 2018

आण- काथ ( पहेलियाँ और कहानियाँ )


उत्तराखंड में अधिकतर भागो में कड़ाके की ठंड पड़ती है और सर्दियों के दिनों में सूरज भी जल्दी ढल जाता है।   राते लम्बी होती है।   एक वह दौर था , जब टीवी और मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे।   उस समय रात को बड़े बूढ़े या ईजा  आण- काथ सुनाकर समय व्यतीत करती थी।   एक कहानी मैंने भी बचपन में बहुत सुनी थी - " चल तुमड़ी बाट बाट , मैके जाणु बुड़ीय बात "

पहलियों को आण कहा जाता था जैसे " भम बुकि , माट मी लुकी " का उत्तर - मूली होता था।   घर के छोटे , नौजवान और बुजुर्ग अंगीठी में कोयला जलाकर एक जगह आग तापते थे और फिर मूंगफली या भुने भट्ट खाये जाते थे और फिर शुरू होता था - आण- काथ का दौर।  परिवार के बुजुर्ग अपने अनुभव साझा करते थे , खूब हंसी ख़ुशी का दौर चलता था।   सबसे बड़ी बात वो आग की अँगीठी या सँगेड़ी सारे परिवार को एकजुट कर देती थी।   सब गिले - शिकवे उसी अँगीठी के इर्द गिर्द सुलझ जाते थे। 

बाँज के लकड़ियों के कोयले बहुत देर तक गर्मी देते थे और चीड़ के फल जिसे " ठीठे " कहा जाता था , बड़ी जल्दी राख हो जाते थे। वो दौर ऐसा था , जिसमे सबके लिए एक दूसरे के लिए समय होता था।   


अब शायद   "आण- काथ " की जगह टीवी और मोबाइल ने ले लिया है और अँगीठी जलनी अब बंद सी हो गयी है और परिवार वालो के पास भी अब वक्त थोड़ा कम हो चला है।  कुछ परम्पराएं हमेशा जीवित रहनी चाहिए और शायद ये परम्परा उन्ही में से एक थी।  

Tuesday 18 December 2018

घर के प्रति प्रेम, समर्पण और सम्मान का प्रतीक - ऐपण



किसी भी क्षेत्र की लोककला तभी तक जीवित रहती है जब तक लोग उस लोक कला को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग समझे।  यह लोक कलाओ पीढ़ी दर पीढ़ी एक हाथ से दूसरे हाथो में स्थान्तरित होते रहती है।   बिना कोई लिखित नियम के ये लोककलाएं सदियों से पल्लवित और विकसित होते रहती है।   उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में एक लोक कला का सुन्दर रूप होता है - ऐपण।   किसी भी शुभ अवसर पर जब घर की दहलीज में ऐपण से चित्र उभरते है तो ऐसा लगता है जैसे ये कला नहीं , जीवन का हिस्सा है। 

ऐपण शब्द का उद्गम संस्कृत शब्द "अर्पण" से है और यह एक तरह से घर की दहलीज को धन्यवाद कहने का माध्यम भी है जो घरवालों को सुरक्षित और संयमित रखता है । इसमें घरों के आंगन से लेकर मंदिर तक प्राकृतिक रंगों जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। जब गेरुवे रंग के ऊपर इस बिस्वार ( सफ़ेद ) से हाथो से लकीरे खींची जाती है तो ऊ , लक्ष्मी माता के चरण , और भी न जाने परिकल्पनाएं उढ़ेल दी जाती है और बन जाता है - लोक कला का एक विशिष्ट नमूना - ऐपण।  अलग अलग मांगलिक अवसरों पर ऐपण को भी अलग तरह से परिकल्पित किया जाता है।   सधी हुई अंगुलियाँ जब गेरुवे या लाल रंग के ऊपर सफ़ेद रंग की लकीरे खींचती है तो जैसे कला जीवंत हो उठती है।  सीढ़ियों पर भी लकीरे उकेरी जाती है। 

खुशकिस्मती है की एक बार विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी इस लोक कला को फिर से जीवंत करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है और इसके परिणाम भी सुखद आ रहे है।  बाजार में रेडीमेड ऐपण प्रिंट भी आने लगे है मगर गाँवों में आज भी गेरुवे और बिस्वार से बनायीं जाने वाली ऐपण कला जीवित है।   वैसे भी हमारी पहाड़ी संस्कृति में बिना ऐपण के कोई नहीं मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है।   जरुरी है की यह परम्परा जीवित रहे और हमारा कर्तव्य है की हम इस कला और इसकी महत्ता को अपनी आने वाली पीढ़ी तक भी पहुचायें। 

घर की दहलीज पर बना ये ऐपण जैसे बोल उठता है की आओ , जजमानो आप सबका स्वागत है। 

जय देवभूमि , जय उत्तराखंड। 

Image Source - Google 

Friday 14 December 2018

साहस , विश्वास और शौर्य का युद्ध नृत्य है - छोलिया नृत्य





छोलिया नृत्य को स्मरण करते ही पहाड़ो की शादियों की याद आ जाती है जब कुछ छोल्यार हाथो में तलवार और ढाल लिए ढोलक ( दमाऊ ) की ताल पर अद्भुत नृत्य करते है।   जैसा ढोल बजता है , नर्तक  उसी अनुसार अपने शरीर के सब अंगो को हिलाते हुए अपनी भाव भंगिमाओं से देखने वालो को एक अलग ही दुनिया में ले जाते है। 

कहते है ख़स राजाओ के समय से यह नृत्य चला आ रहा है और जनश्रुतियो के अनुसार इस नृत्य शैली के विकसित होने का एक कारण बड़ा प्रचलित है।   उस काल में जब कोई राजा युद्ध जीतकर आया तो वह युद्ध की कहानी अपनी रानियों को सुना रहा था तो रानियां बहुत प्रभावित हुई और उन्होंने भी युद्ध देखने की इच्छा जताई मगर सामाजिक बंधनो और सुरक्षा का हवाला देकर राजा ने उनकी इच्छा को अस्वीकार कर दिया मगर युद्ध क्षेत्र में क्या होता है , वो प्रतीकात्मक तौर पर अपनी रानियों को दिखाने के लिए उसने राजदरबार में ही युद्ध क्षेत्र को रचने का निर्णय लिया और दो गुट  बनाकर उन्हें सैनिको जैसे कपडे और तलवार , ढाल दिए और दमाऊ की आवाज पर उन्हें अभिनीत करने का आदेश दिया।   यह नृत्य  राजदरबारियों और रानियों को बहुत पसंद आया और फिर इसका आयोजन हर साल होने लगा।   कालान्तर में यह नृत्य कुमाऊँ क्षेत्र में जन नृत्य बन गया  और फिर धीरे धीरे शादियों में भी किया जाने लगा। 

यह एक तलवार नृत्य है, जो प्रमुखतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। यह विशेष रूप से कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में लोकप्रिय है।

इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसे संगीत की धुन पर क्रमबद्ध तरीके से तलवार व ढाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नर्तकियों के साथ नकली लड़ाई जैसा प्रतीत होता है। वे अपने साथ त्रिकोणीय लाल झंडा (निसाण) भी रखते हैं। नृत्य के समय नर्तकों के मुख पर प्रमुखतः उग्र भाव रहते हैं, जो युद्ध में जा रहे सैनिकों जैसे लगते हैं।

इसके अतिरिक्त छोलिया नृत्य का धार्मिक महत्व भी है। इस कला का प्रयोग अधिकतर राजपूत समुदाय की शादी के जुलूसों में होता है। छलिया को शुभ माना जाता है तथा यह भी धारणा है की यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से बारातियों को सुरक्षा प्रदान करता है।

छोलिया नृत्य में कुमाऊं के परंपरागत वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें तुरी, नागफनी और रणसिंह प्रमुख हैं।
नर्तक पारंपरिक कुमाउँनी पोशाक पहनते  हैं, जिसमें सफेद चूड़ीदार पायजामा, सिर पर टांका, रंगीला चोला तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट शामिल हैं। तलवार और पीतल की ढालों से सुसज्जित उनकी यह पोशाक दिखने में कुमाऊं के प्राचीन योद्धाओं के सामान होती है। 


अब आमतौर पर यह नृत्य रंगमंच पर या यदाकदा ही किसी शादी में देखने को मिलता है।  राज्य सरकार को इस नृत्य के सरंक्षण के उपाय सुनिश्चित करने चाहिए ताकि सदियों से चली आ रही यह नृत्य विधा विलुप्त न हो जाये।  

Friday 7 December 2018

बुराँश का फूल



अप्रैल और मई में पहाड़ो में फल -फूल अपने शबाब पर होते है।   इन्ही फल फूलो में अगर आप पहाड़ो के यात्रा पर निकले हो तो सड़क किनारे और जंगलो के बीच किसी झाड़ी नुमा पेड़ पर सूर्ख लाल रंग के बड़े से लाल फूलो का दीदार मन को प्रसन्न कर देता है और आपका मन उस उस फूल को पाने को लालायित हो उठता है।   उस फूल का नाम है - बुराँश।  अपने बड़ी बड़ी पंखुड़ियों के बीच इसके बीज भी समेटे यह फूल अंग्रेजी में रोडोडेंड्रोन कहलाता है।   असल में रोडोडेंड्रोन एक ग्रीक शब्द है जिसमे रोडो मतलब फूल होता है और डेंड्रॉन का मतलब - वृक्ष या पेड़ होता है।    बुरांश का पेड़ उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है और नेपाल में इसके फूल को राष्ट्रीय फूल का दर्जा प्राप्त है।   बुरांश आमतौर पर तीन रंगो में पाया जाता है - लाल , सफ़ेद और गुलाबी।   पहाड़ो में आमतौर पर लाल बुराँश ही खिलता है।  इस फूल की सबसे खास बात यह है की इसमें सुगंध नाम मात्र की होती है। 

उस  समय आपको बहुत सी जगह " बुराँश के फूल " का जूस , जैम और जैली  खरीदने के इश्तेहार भी दिख जाते है।   बुरांश के फूलो का आयुर्वेदिक महत्व है।   यह लीवर , किडनी और हृदय सम्बन्धी रोगो के उपचार में काम आता है।  अगर आपको साबुत फूल भी मिल जाए तो इसकी पंखुड़ियों को धोकर आप सीधे भी खा सकते है।  इसकी पंखुड़ियाँ मीठी होती है और बहुत सारा रस लिए होती है।  बुरांश हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत भी बनाया जाता है। 

पहाड़ी लोक जीवन में इस फूल का बड़ा महत्व है।   यह यौवन  और प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता है।   लोकगीतों में भी इस फूल की महिमा वर्णित है।  इसकी  गिरती पंखुड़ियों को विरह के रूप में भी गीतकारो और कवियों ने दर्शाया है।  

फोटो सौजन्य - गूगल 

Saturday 1 December 2018

“बेड़ू “



हिमालयन वाइल्ड फिग के नाम से पहचाना जाने वाला यह " बेड़ू " वही जंगली फल है जिसका जिक्र कुमाउँनी सदाबाहर गीत " बेड़ू पाको बारमासा " में हुआ है।  यह फल और पौधा वानस्पतिक जगत में " फाइकस पालमारा" के नाम से वर्गीकृत है।  यह उत्तराखंड के हर क्षेत्र में अपने आप उगने वाला फल दार पेड़ हैं। लोग इसके फलों को चाव से खाते हैं , लेकिन इसकी खेती नहीं की जाती है ।  तिमला और बेड़ू एक ही कुल के फल है। 

दिसंबर-जनवरी में गिरने वाली इसकी पत्तियां अप्रैल-मई तक निकल आती है। इसके फल लट्टू के आकार के होते हैं। प्रारंभिक अवस्था में यह हरा रंग लिए होते हैं। बाद में पक जाने पर यह जामुनी व बैंगनी रंग के हो जाते है। पके हुए फलों का स्वाद लाजवाब होता है। जब यह पूरा बैगनी हो जाये तो समझ लीजिये - अब यह खाने के लिए तैयार है।   जब आप इस फल को पेड़ से तोड़ते है तो इसके बाहरी छिलके में एक कसैलापन होता है।  आप इस फल को तोड़कर पांच या दस मिनट पानी में भिगो दीजिये और फिर इसको खाइये या इसका महीन छिलका उतारिये और इसे मुँह में रखिये , यह अपने में अधिकतर जूसी पल्प लिए होता है तो तुरंत घुल जाता है और इसके छोटे छोटे बीज ही आपको बेड़ू खाने का स्वाद देते है। जूसी पल्प होने के कारण अब इस फल से जैम , स्क्वैश और जेली भी बनाई जाने लगी है।  पर्यावरण संरक्षण के लिए लाभकारी इस पेड़ की पत्तियां चौड़ी व खुरदरी होती हैं। इसकी पत्तियां काफी पौष्टिक होती हैं, जिसे गाय, भैंस, भेड़ व बकरियां बड़े की चाव से खाते हैं। इसके कच्चे फलों से सब्जी भी तैयार की जाती है, जो काफी स्वादिष्ट होती है।  

क्यों खास है बेड़ू ?

अगर आपको पेट सम्बन्धित कोई रोग या विकार है तो बेड़ू फिर किसी चमत्कार से कम नहीं है।  आयुर्वेद में बेडु के फल का गुदा (Pulp) कब्ज, फेफड़ो के विकार तथा मूत्राशय रोग विकार के निवारण में प्रयुक्त किया जाता है। बेडू के फल में सर्वाधिक मात्रा आर्गेनिक मैटर होने के साथ-साथ इसमें बेहतर ऑक्सीडेंट गुण भी पाये जाते हैं, जिसकी वजह से बेडू को कई बिमारियों जैसे - तंत्रिका तंत्र विकार तथा हेप्टिक बिमारियों के निवारण में भी प्रयुक्त किया जाता है।  बेड़ू  का प्रयोग विभिन्न बीमारियों के इलाज में जठरांत्र विकार ,  हाइपोग्लाइसेमिया, ट्यूमर, अल्सर, मधुमेह, हाइपरलिपिडेमिया और फंगल संक्रमण को रोकने के लिए किया जाता है। 

यह उत्तराखण्ड में बेडू, फेरू, खेमरी, आन्ध्र प्रदेश में मनमेजदी, गुजरात मे पिपरी, हिमाचल प्रदेश में फंगरा, खासरा, फागो आदि नामों से जाना जाता है।

Tuesday 27 November 2018

किल्मोड़ा : एक असरदार पहाड़ी औषधि


जो पहाड़ो में रहते है या पहाड़ो से तालुक रखते है उन्हें तो किल्मोड़ा के बारे में पता ही होगा।    मई -जून  में जब आप पहाड़ो में जाते है तो सड़को किनारे एक कांटेनुमा झाड़ी में बैंगनी रंग और हरे रंग के छोटे छोटे फल लटके दिखाए दे जाते है।   एक ही डाली में हजारो छोटे छोटे लटकते ये फल या तो बन्दर खा जाते है या फिर छोटे छोटे बच्चे स्कूल से आते जाते खाते है।  अप्रैल में इसमें पीले फूल खिलने शुरू हो जाते है जो फिर धीरे धीरे फल का आकार ले लेते है।   

किल्मोड़ा अपने आप में एक अद्भुत औषिधीय पौधा या झाड़ है जिसका जिक्र आयुर्वेद में तक है।  इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। हरे रंग की  प्रजाति को दारू हल्दी भी कहा जाता है। यह आपको पहाड़ो में अमूमन 1500 से 2000 तक की समंदर तल से ऊँचाई वाले भाग में मिलता है।  किल्मोड़ा की जड़, तना, पत्ती से लेकर फल तक का इस्तेमाल होता है। मधुमेह में किल्मोड़ा की जड़ बेहद कारगर होती है। इसके अलावा बुखार, पीलिया, शुगर, नेत्र आदि रोगों के इलाज में भी ये फायदेमंद है। होम्योपैथी में बरबरिस नाम से दवा बनाई जाती है।

इस पौधे में एंटी डायबिटिक, एंटी इंफ्लेमेटरी, एंटी ट्यूमर, एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल तत्व पाए जाते हैं। डायबिटीज के इलाज में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है

किलमोड़े के फल में पाए जाने वाले एंटी बैक्टीरियल तत्व शरीर को कई बींमारियों से लड़ने में मदद देते हैं। दाद, खाज, फोड़े, फुंसी का इलाज तो इसकी पत्तियों में ही है। डॉक्टर्स कहते हैं कि अगर आप दिनभर में करीब 5 से 10 किलमोड़े के फल खाते रहें, तो शुगर के लेवल को बहुत ही जल्दी कंट्रोल किया जा सकता है।
गढ़वाल में इसे किनगोड़ा कहा जाता है। इसके साथ किलमोड़े के तेल से जो दवाएं तैयार हो रही हैं, उनका इस्तेमाल शुगर, बीपी, वजन कम करने, अवसाद, दिल की बीमारियों की रोक-थाम करने में किया जा रहा है।  इसकी जड़ो को खोदकर या लकड़ी को छोटे छोटे टुकड़े बनाकर रात में पानी में भिगोकर फिर उस पानी को पीने से शुगर में अत्यधिक लाभ होता है। 

तो अगली बार जब भी आप पहाड़ जाये तो इस किलमोड़े को औषधीय झाड़ के रूप में ही देखिएगा और अगर फल खिले हो तो तोड़ कर जरूर अपने परिजनों तक पहुँचायेगा। यह घरो के आस पास नहीं उगाया जाता क्यूंकि इसमें कांटे होते है।   यह अपने आप जंगलो में , सड़क के किनारे उगता है। और मुफ्त में बहुतायत में उपलब्ध रहता है।    दुखद बात ये है की इसकी झाड़े अब धीरे धीरे ख़त्म हो रही है और उपेक्षा के अभाव में कही ये प्रकृति द्वारा प्रदत औषिधीय पौधा कहीं गायब न हो जाये। 

Saturday 24 November 2018

बहुत गुणकारी है पहाड़ी गहत की दाल, जरूर खाइये।



पहाड़ो में सर्दियों के दिनों में प्रायः एक दाल का महत्वपूर्ण स्थान है , वह है गहत।  सर्दियों में इस दाल का सेवन पहाड़ो में सेहतमंद और फायदेमंद है क्यूंकि इस दाल की तासीर गर्म होती है और इस दाल में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है।   सर्दी के मौसम में नवंबर से फरवरी माह तक इस दाल का उपयोग बहुतायत में किया जाता है। गहत का  वानस्पतिक नाम है " डौली कॉस बाईफ्लोरस” और इसे हिंदी में कुल्थी नाम से भी जाना जाता है। 

यह दाल खरीफ की फसल में शुमार है और आमतौर पर पहाड़ो में उगाई जाने वाली दाल का रंग भूरा होता है ।  कहा जाता है की डायनामाइट का इस्तेमाल करने से पहले चट्टानों को तोड़ने के लिए इस दाल का उपयोग किया जाता था।  इसके लिए बड़ी-बड़ी चट्टानों में ओखली नुमा छेद बनाकर उसे गर्म किया जाता था और गर्म होने पर छेद में गहत का तेज गर्म पानी डाला जाता था। जिससे चट्टान चटक जाती थी।

गहत की दाल का रस गुर्दे की पथरी में काफी लाभकारी है। इसके रस का लगातार कई माह तक सेवन करने से स्टोन धीरे-धीरे गल जाती है। आयुर्वेद के अनुसार गहत  की दाल में विटामिन 'ए' पाया जाता है, यह शरीर में विटामिन 'ए' की पूर्ति कर पथरी को रोकने में मदद करता है। गहत  की दाल के सेवन से पथरी टूटकर या धुलकर छोटी हो जाती है, जिससे पथरी सरलता से मूत्राशय में जाकर यूरिन के रास्ते से बाहर आ जाती है। मूत्रवर्धक गुण होने के कारण इसके सेवन से यूरिन की मात्रा और गति बढ़ जाती है, जिससे रुके हुए पथरी के कण पर दबाव ज्यादा पड़ता है और दबाव ज्‍यादा पड़ने के कारण वह नीचे की तरफ खिसक कर बाहर आ जाती है।

उत्तराखंड में 12,319 हेक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती की जाती है।  अल्मोड़ा , टिहरी , नैनीताल , पिथौरागढ़ , बागेश्वर आदि जिलों में यह बहुतायत में उगाई जाती है।  तो खाइये इन सर्दियों में - गहत की दाल।  

Wednesday 21 November 2018

ह्यून एगो



ह्यून एगो पहाड़ो मी , 
राति ब्याव जाड़ , 
हाथ खुटा अकड़ गी ,
जल्दी जलाओ आग।  

रजे -कंबल निकालो अब , 
ऊनी कपड़ोल ढको तन , 
बूढ़ बाड़िया ध्यान धरो , 
"बाई बात " नि हो केकू दर्द।  

नानतिन अब नानतिनेन भाय , 
उनको केहू जाड़ , 
धिरक धिरक बेर इत्था उत्था , 
शरीर कर रूनी आपुण गर्म।  

घाम मी बैठ बेर , 
फसक मारणि  दिन ,  
ह्यून एगो पहाड़ो मी , 
बनेन बुननि दिन।  

भौते ठंड हूँ हो पहाड़ो मी , 
करिया आपुण आपुण जतन , 
प्रार्थना छू सब दाज्युओं ,
कम पिया हो रम।  



Friday 16 November 2018

उत्तराखंडेक पुकार



होई अब मी बालिग हेगेयू , 
के कू दाज्यू , 
भरभरान जवानी मी 
लूरि बिराऊ जैस हेगेयू।  

कसी म्यर जन्म हो , 
सब भूली गई  , 
कदु अरमान छी , 
सब हरेगी।  

खूब दैल -फ़ैल हेलि , 
सब राजी ख़ुशी रौल , 
कदु स्वेण छी ,
सबु मी पाणी फेरिगो।  

आइले बखत छू , 
आपुणेक घरेक बात छू , 
अठारहेक है रैयू आई , 
नई शुरुवात करणी समय छू।  

जाग जाओ रै सब , 
आईले नि जागला 
फिर काम तमाम छू ,
बचे लिहो म्यूकि , 
नते, खाली नामेनाम छू।  

Image Source - Google 

Tuesday 13 November 2018

सुना तो होगा ही आपने - "बेड़ू पाको बारमासा" तो जानिये इस गीत का इतिहास ?



कुमाउँनी गीतो की जब भी बात होती है तब सबसे पहले जो गीत सबकी जुबान में चढ़ता है , वह है कुमाउँनी आँचल का सदाबहार गीत - "बेड़ू पाको बारमासा" ।
इस प्रसिद्द गीत के गीतकार थे - श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह।  इस गीत को राग दुर्गा पर आधारित बनाकर श्री मोहन उप्रेती और श्री ब्रजमोहन शाह जी द्वारा सर्वप्रथम 1952 में राजकीय इण्टर कॉलेज , नैनीताल में गाया गया।  मगर जब यह गीत दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में बजाया गया तो कुमाउँनी भाषा का यह गीत अमर हो गया।  बताते है यह हमारे प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी के पसंदीदा गीतों में शुमार था।   तीन मूर्ति सभागार में इस गीत की रिकॉर्डिंग सब मेहमानो को स्मारिका के तौर पर भी दी गयी थी।  बाद में कुमाउँनी गीतों के प्रसिद्ध गायक श्री गोपाल बाबू गोस्वामी ने जब अपनी खनकती आवाज में इसे गाया और रिकॉर्ड किया तो यह जन -जन का पसदींदा गीत बन गया।   शायद ही कोई कुमाउँनी होगा , जिसने यह गीत न सुना हो।   हर बारात में जब बीनबाजे और रामढोल पर यह गीत बजता है तो पैर अपने आप थिरकने लग जाते है। 

बेडु पाको बारोमासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

भुण भुण दीन आयो -२ नरण बुझ तेरी मैत मेरी छैला -२
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

आप खानी पान  सुपारी -२, नरण मैं को दिनी  बीडी मेरी छैला -२
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

अल्मोडा की नंदा देवी, नरण फुल चढूनी पात मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

त्यार खुटा मा काना बूड़ो , नरणा मेरी खुटी पीडा मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

अल्मोडा को लाल  बजार, नरणा लाल मटा की सीढी मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २


तो गुनगुनाना मत भूलियेगा -" बेडु पाको बारोमासा"।

Sunday 11 November 2018

पहाड़ी जायका : दिन के भोजन की स्पेशल थाली




याद आया आपको पहाड़ और वो स्वाद ?

पहाड़ो में खाने का अपना रिवाज है।   अमूमन दिन के समय भात ( चावल ) के साथ दाल या कोई पहाड़ी व्यंजन बनाया जाता है और रात को रोटी के साथ सब्जी बनायीं जाती है। 

इस फोटो को देखकर अपने पहाड़ो से दूर रहने वालो को जरूर अपने गाँव की याद आएगी और याद आएगा वो स्वाद। 

दिन के खाने में अक्सर चावल के साथ मौसमी दाल या सब्जी बनायीं जाती है।   इस पहाड़ी थाली में भट्ट का जोउ , झोई ( कढ़ी) , भात , हरी सब्जी की टपकी और  भाँग की चटनी है।   यह पहाड़ो की शाकाहारी विशेष थाली है जो दिन में बड़े चाव से खायी जाती है। 
पहाड़ी झोई , दही को मथने के बाद बची छाछ से बनाई जाती है और इसमें पकौड़े नहीं डाले जाते है।   थोड़ा सा खटास लिए यह झोई जब मुँह में जाती है तो स्वाद कीर्तन करने लगता है।   हरी सब्जी की टपकी,  भात और भट के जोऊ के साथ स्वाद का सामंजस्य बिठाने का काम करती है।  चटनी वैल्यू एडेड सर्विस है जो पूरे खाने में तड़के सा काम करती है। 

जब भी पहाड़ जाइये तो इस विशेष थाली का लुत्फ़ उठाने से खुद को रोकियेगा मत।   बस खा जाइये , तन मन सब तृप्त हो जायेगा। 


फोटो आभार - श्री प्रकाश कपकोटी , कपकोट 

Saturday 3 November 2018

गौव - गाड़ेक हाल समाचार


बता धी भुला , म्यार पहाडेक हाल,
म्यूकि नि जाई, हेगी कदु साल। 

बाट -बखाई उस्से छीना ,
वै छो ऊ गोल्ज्यू थान।

रमु कक्क जिन्द छीना ,
धार मी आईले उछो चिट घाम। 

पाणी धार बाँजेक बुझाणी हुनोल ,
काश छीन घट्ट -बिरबान। 

दाज्यू , बदल गो हो हमौर पहाड़ ,
बाँझ पड़ गी गौव-गाड़। 

तुमार घराक बल्ली सड़ गी ,
गोठ भेतर चौफान हेगी । 

खेतीबाणी सब बाँझ पड़ी गे ,
वानरों हर जाग़ धीरधिराट हेगो ।

गोल्ज्यू थान मी दूब जामिगो ,
बाँझ बुझांणी धार सूख गो। 

रमु कक्क परलोक सिधार गी ,
चैलाक उनौर झकोड़ हेगो। 

बकाई अब गौव मी केय नि रेगो ,
खालि अब नामेनाम  रेगो। 

दाज्यू  , बाँझ पड़ गी हमार गौ-गाड़ सब ,
पत् न केक हँकार लागि गो।

फोटो साभार - गूगल 

Thursday 1 November 2018

कुमाउँनी गीतों के किशोर कुमार - गोपाल बाबू गोस्वामी



याद है आपको - "घुघुती न बासा", "कैलै बजै मुरूली", "हाये तेरी रुमाला", "भुर भुरु उज्याव हैगो" , "अलबेरे बिखौती , म्येरि दुर्गा हरेगे ","हिमाला को ऊँचो डाना प्यारो मेरो गाँव", "छोड़ दे मेरो हाथा में ब्रह्मचारी छों","छविलो गढ़वाल मेरो रंगीलो कुमाऊं",- तो आप उस महान कुमाउनी गायक गोपाल बाबू गोस्वामी को भी जानते होंगे ?   कुमाउनी गीतों के इस किशोर कुमार के गीतों का एक समय पूरे कुमाऊं मंडल  में गायकी में राज था। 

" न रो चेली न रो मेरी लाल, जा चेली जा सरास " हर बेटी के विदाई के वक्त जब बजता था , तो घर वालो के साथ बारातियो की आँखों में भी आंसू आ जाते थे। 
"हरु -हीत " और "राजुला -मालूशाही " लोककथाओं को संगीतबद्ध करके जन -जन तक पहुंचाने का काम गोपाल बाबू गोस्वामी ने किया।  उनके ऑडियो कैसेट एक वक्त सबके घरो में उपलब्ध हुआ करते थे। 

अल्मोड़ा के चौखुटियाँ तहसील के चाँदीखेत नामक गाँव से 2 फरवरी ,1941 से शुरू हुआ उनका सफर कई उतार चढ़ाव से गुजरते हुए 26 नवम्बर 1996 को समाप्त हुआ।    इस सफर में आकाशवाणी , हिरदा कैसेट  के माध्यम से उनके गीत और आवाज कुमाऊं के अंचलो से होते हुए हर पहाड़ी के मन और मस्तिष्क में घर कर गयी।  12 साल की उम्र से उन्होंने जो गीत लिखने शुरू किये तो अपने जीवन काल में उन्होंने लगभग 500 गीत लिख डाले।

उनकी आवाज में एक पहाड़ी खनक थी , ऐसा लगता था जैसे दूर पहाड़ो से कोई आपको बरबस पुकार रहा हो और आप उस आवाज को सुनने को मचल उठे हो।   उन्होंने पहाड़ के हर रंग को अपने गीतों में ढाला।   पहाड़ो की परम्पराएं , रीति रिवाज , सामाजिक चेतना , सुख-दुःख - सभी को अपने गीतों में पिरोया और फिर अपनी मधुर आवाज से ऐसे संगीतबद्ध किया की - वो हर पहाड़ी को अपनी आवाज लगी। 

"कैले बजे मुरली " में उन्होंने विरह गीत पेश किया तो " अलबेरे बिखौती , म्येरि दुर्गा हरेगे " में छेड़छाड़ प्रस्तुत किया।  उनके गाये गीतों में पहाड़ छलकता था , पहाड़ के सुख दुःख बयां होते थे।  मैं भाग्यशालो हूँ की मैंने गोपाल बाबू गोस्वामी के उस दौर को जीया है और उनके गए गीतों को ही सुनकर बढ़ा हुआ।  आज भी उनके गाये  गीत सुनता हूँ तो कही भी रहूँ , फिर से ऐसा लगता है - की पहाड़ो में जी रहा हूँ। ठंडी ठंडी हवा के झोंके , वो उजला आसमान और एक खनकती आवाज - जो बरबस याद दिलाती है - "हिमाला को ऊँचो डाना, प्यारो मेरो गाँव" । 
जरूर सुनियेगा - पहाड़ो की खनकती इस आवाज को।


फोटो साभार - गूगल 

Monday 29 October 2018

रंगवाली पिछौड़ा : पहाड़ी महिलाओ की शान



उत्तराखंड की महिलाओ की वेशभूषा वैसे तो समय के साथ बदलती गयी है और आज के समय में कमोबेश अब ये एक जैसी हो गयी है मगर एक पहनावा अब भी उन महिलाओ को शुभ अवसरों में अलग सुशोभित करता है , वह है - पीले कपडे पर सूर्य जैसी लालिमा लिए गोलाकार धब्बे जिसे पहाड़ी महिलाएं " पिछौड़ा " कहती है और पूरे रुतबे और शान से पहनती है।  और यह पिछौड़ा न केवल उनकी सुंदरता बढ़ाता है , अपितु उनके आत्म विश्वास में भी बढ़ोतरी करता है। 

पिछौड़ा सबसे पहले कहाँ से आया ? इसके बारे में मत स्पष्ट नहीं है मगर पहले जहाँ यह केवल दुल्हन द्वारा पहना जाता था , धीरे धीरे सब मंगल कार्यो में सभी सुहागन महिलाओ द्वारा पहना जाने लगा है।   किसी भी लड़की को सबसे पहले पिछोड़ा पहनने का अधिकार उसकी शादी के दिन मिलता है और उसके बाद वह उसकी ज़िन्दगी के एक महत्वपूर्ण परिधान बन जाता है। 

कालांतर  में , चिकन के 3  मीटर गुणा 1. 5 मीटर के सफ़ेद  कपडे को प्राकृतिक रंग बनाकर जैसे हल्दी या किलमोड़े की जड़ो से तैयार पीले रंग से रंगा जाता था और लाल रंग के लिए कच्ची हल्दी में नीम्बू निचोड़ कर सुहागा डालकर रात भर एक तांबे के बर्तन में रखा जाता था।  फिर उस लाल रंग से इस पीले रंग के  कपडे में गोलाकार लाल धब्बे बनाये जाते थे।   पिछौड़े के चारो किनारो पर सूर्य , चन्द्रमा , शंख आदि बनाये जाते थे। 

पीला और लाल रंग ही क्यों ?
पीला रंग महिलाओ के भौतिक जगत के साथ जुड़ाव का प्रतीक है , यह प्रसन्नता और ज्ञान का भी प्रतीक है।    लाल रंग सम्पन्नता , जीवन की खुशहाली, श्रृंगार और  ऊर्जा का प्रतीक है।  किनारो पर बनाये जाने वाले सूर्य , चन्द्रमा , शंख भी प्रतीकात्मक है। 

धीरे धीरे यह पिछौड़ा , पर्वतीय समाज की महिलाओ का ऐसा परिधान बन गया की हर शुभ मुहूर्त में अब इसका पहना जाना अनिवार्य सा हो गया है।   आज भी पर्वतीय समाज का कही भी कोई शुभ कार्य संपन्न हो रहा हो , घर की सुहागन महिलाये इसे जरूर धारण करने का प्रयास करती है।   हाथो से पिछौड़े रंगने की कला अब धीरे धीरे विलुप्ति की कगार पर है , इसकी जगह अब प्रिंटेड पिछौड़े बाजार में आसानी से उपलब्ध हो गए है। 

जब एक पहाड़ी महिला नाक में नथ , गले में गलोबन्द ,कर्णफूल और माँगटीके के साथ इस रंगवाली पिछौड़े को धारण करती है तो प्रकृति भी उसके सौंदर्य की तारीफ किये बिना नहीं रहती।   यह हमारा परम्परागत परिधान है और इसको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना हमारी जिम्मेदारी है। 

"गौव मी गलोबन्दा , कानो मी कर्णफूल छाजी री 
  रंगीली पिछौड़ा पेरी , म्यार पहाडेक नारी भलु लागि री। " 

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इस पिछौड़े का सफर बदस्तूर जारी है और शायद रहेगा।   क्या आपके घर की महिलाओ के पास मौजूद है -यह रंगवाली पिछौड़ा ? 

फोटो साभार - गूगल 

Wednesday 24 October 2018

आपको याद है पहाड़ी "बीनबाजा" या मशकबीन या बैगपाइपर की धुन ?



अगर आप किसी पहाड़ी शादी में शामिल होते है तो आपको पहाड़ी बैंड जरूर सुनने को मिलता है।  उस बैंड में आमतौर पर मशकबीन जिसे हम पहाड़ो में "बीनबाजा " के नाम से ज्यादा जानते है।  जैसे ही कलाकार इस बीनबाजा में फूंक मारता है और फिर धीरे धीरे उसमे से सुर लहरिया निकलने लगती है फिर ढोल और नगाड़ा में थाप पड़ती है तो ऐसा समां बंधता है की पाँव पहाड़ी धुनों पर खुद ब खुद थिरकने लगते है। 

पहाड़ो में यह बैगपाइपर पहुंचने की कहानी लगभग 100 ~  150 साल पुरानी है।  स्कॉटलैंड के इस राष्ट्रीय वाद्ययंत्र को पहाड़ो तक पहुंचाने का श्रेय अंग्रेजो को जाता है।   शुरुवात में सिर्फ फ़ौज में बजने वाला यह वाद्ययंत्र धीरे धीरे हम पहाड़ियों के लोक संगीत में रच बस गया। रिटायर हुए पहाड़ी फौजियों ने इस कला को हमारी पहाड़ी संस्कृति का हिस्सा बना दिया।    इसकी जरुरत भी थी क्यूंकि तब तक पहाड़ो में फूंक मारकर बजाने वाले वाद्ययंत्रों की कमी थी।   ढोल , नगाड़े , हुड़का , दमऊ सब हाथ से बजाये जाने वाले वाद्य यन्त्र थे।  इस बैगपाइपर ने एक खाली जगह को भरकर पहाड़ी वाद्य यंत्रो को पूर्ण कर दिया।  फिर तो हर शुभ उत्सव पर इस "बीनबाजा " ने अपनी धुनों से गजब समां बांधना शुरू कर दिया।  जब कलाकार इस "बीनबाजे " पर " टक -टकाटक कमला " या 'बम्बई से आया मेरा दोस्त " बजाता था तो नचैये ऐसे थिरकते थे की रुकने का नाम ही नहीं लेते थे। 

मगर धीरे धीरे अब इस "बीनबाजा " को बजाने वाले कम हो रहे है क्यूंकि इस वाद्य यन्त्र को बजाने के लिए सांसो में नियंत्रण की कठोर साधना करनी पड़ती है जिसे आज का युवा नहीं करना चाहता।  अगर सरकार का सरंक्षण  या सामाजिक चेतना का अभाव रहा तो यह "मशकबीन " धीरे धीरे हमारे लोक संगीत से गायब हो जायेगा और फिर हमें नहीं सुनाई देगी इसकी मधुर धुन। 

याद आयी आपको "बीनबाजा " की धुन?


चित्र साभार - गूगल 

Sunday 21 October 2018

भट्ट के डुबुक (भटिया ) और चुड़कानी




उत्तराखंड के खाने का जायका अलग ही होता है।   पहाड़ो में सोयाबीन की एक किस्म बहुतायत में उगाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में "भट्ट " कहा जाता है।   यह छोटे छोटे काले रंग का छिलके लिए एक किस्म की दाल या सोयाबीन का प्रकार होता है जिसमे प्रोटीन और आयरन प्रचुर मात्रा में होता है। अंग्रेजी में इसे   "ब्लैक बीन " कहा जाता है।  इस भट्ट से कुमाऊं क्षेत्र में तीन तरह के व्यंजन बनाये जाते है - डुबुक ( भटिया ) , चुड़कानी और जौउ। 

डुबुक बनाने से पहले भट्टो को भिगोया जाता है और अच्छे से भीगने के बाद इन्हे सिलबट्टे में या मिक्सर में पीस लिया जाता है और उसके बाद तय विधि से भट्ट के डुबुक (भटिया ) बनाया जाता है और इसके साथ आमतौर पर " भात " बनाया जाता है। 

चुड़कानी में आमतौर पर साबुत भट्ट डाले जाते है।  भट्टो को घी में फ्राई कर लिया जाता है और फिर आटे या बेसन को तलकर भट्ट मिलाये जाते है और फिर कढ़ाई में धीमी आंच में इसे पकाया जाता है।   इसे भी " भात " के साथ हरा धनिया डालकर खाया जाता है। 

भट्ट का जौउ बनाने की विधि डुबके बनाने जैसी ही है मगर इसमें थोड़ा चावल को पीसकर भी मिलाया जाता है।  कढ़ाई में चावल और भट्ट को पीसकर धीमी आंच में पकाया जाता है और फिर पहाड़ी नूण के साथ खाने में इसका स्वाद दुगुना हो जाता है। 

आज के आधुनिक व्यंजनों से अलग पहाड़ो में बड़े चाव से खाया जाने वाली ये सोयाबीन की दाल सदियों से पहाड़ियों को वहां की विषम परिस्थितियों से मुकाबला करने की अंदरूनी ताकत प्रदान करती है।   

Thursday 18 October 2018

नहीं भूलती वो यादें


नहीं भूलती वो यादें , 
वो पाथरो के घर , 
वो ऊँचे नीचे रास्ते ,  
वो नौले का पानी , 
वो बाँज की बुझाणि , 
वो आमा बुबु के फसक , 
वो भट्ट के डुबुक , 
वो गाँव की बखाई , 
वो झोड़े , चांचरी 
वो जागर की धुन , 
वो "भुला " का अपनापन ,
वो "दाज्यू " का प्यार , 
वो "बेणी " का दुलार , 
वो "बौजी " की झिड़क , 
वो " ईजा " की फिक्र , 
वो गोल्ज्यू का थान , 
वो "शिवालय " की शान , 
वो "बुराँश " के फूल , 
वो "काफल " का स्वाद , 
वो "हिसालू ", "किलमोड़े "
वो " पालक " का साग ,
वो रास्तो पर बेख़ौफ़ धिरकना ,
वो सब "अपने" है का एहसास , 
नहीं भूलती है वो यादें , 
कहीं भी रहे हम , 
पहाड़ों की बहुत आती है याद।  

Sunday 14 October 2018

सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास याद है आपको ?



अगर आप पहाड़ी है तो एक घास से आपका जरूर कभी न कभी पाला पड़ा होगा और उसकी चुभन ने आपके आँसू जरूर निकाले होंगे।  कभी सजा के तौर पर या कभी अनजाने में इस घास से आपका सामना जरूर हुआ होगा।  

सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास अंग्रेजी में नेटल (Nettle ) कहा जाता है. इसका वानस्पतिक नाम अर्टिका पर्वीफ्लोरा  है।  कुमाऊंनी में इसे सिसूण कहते हैं और गढ़वाल में यह कंडाली के नाम से जाना जाता है।  बिच्छू घास उत्तराखंड और मध्य हिमालय क्षेत्र में होती है. यह घास मैदानी इलाकों में नहीं होती। बिच्छू घास में पतले कांटे होते हैं और चौड़े पत्ते होते है और  यदि किसी को छू जाये तो इसमें बिच्छू के काटने जैसी पीड़ा होती है और बहुत लगने से सूजन या फफोले हो जाते है।  बचपन में सजा के तौर पर स्कूल में मास्साब और ईजा ने सजा देने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया है।  

यह सिसूण या कंडाली बहुत उपयोगी है और आयुर्वेद में इसका खासा महत्व है।  आमतौर पर बुखार आने, शरीर में कमजोरी होने, तंत्र-मंत्र से बीमारी भगाने, पित्त दोष, गठिया, शरीर के किसी हिस्से में मोच, जकड़न और मलेरिया जैसे बीमारी को दूर भागने में उपयोग करते हैं।  बिच्छू घास की पत्तियों पर छोटे-छोटे बालों जैसे तीखे और सुई नुमा कांटे होते हैं।   पत्तियों के हाथ या शरीर के किसी अन्य अंग में लगते ही ये कांटे शरीर में धस जाते हेयर और शरीर में  झनझनाहट शुरू हो जाती है, जो कंबल से रगड़ने या तेल मालिश से ही जाती है. अगर उस हिस्से में पानी लग गया तो जलन और बढ़ जाती है.

पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी साग खाया जाता  हैक्यूंकि  इसकी तासीर गर्म होती है और यदि हम स्वाद की बात करे तो पालक के साग की तरह ही स्वादिष्ट भी होती है  इसमें Vitamin A,B,D , आइरन (Iron ) , कैल्सियम और मैगनीज़ प्रचुर मात्रा में होता है.  माना जाता है कि बिच्छू घास में काफी आयरन होता है। 

वैज्ञानिक इससे बुखार भगाने की दवा तैयार करने में जुटे हैं. प्राथमिक प्रयोगों ने बिच्छू घास के बुखार भगाने के गुण की वैज्ञानिक पुष्टि कर दी है। 

अब याद आया आपको सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास ?  पहाड़ी लोग ऐसे ही स्वस्थ नहीं होते , कभी न कभी सिसूण का डंक उन्हें तमाम बीमारियों से बचा कर रखता है। 


जय देवभूमि , जय उत्तराखंड।   

Thursday 11 October 2018

हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है।

 

कल एक ने पूछा ," आप पहाड़ी हो ?" , मैंने तुरंत उत्तर दिया ," हाँ  जी।  बिलकुल पहाड़ी हूँ। "
मैंने उससे पूछा ," आपको कैसे लगा ?" तो उसने उतर दिया ," आपके बोलने में पहाड़ी लहजा है। " तो मैं बोला ," फिर तो यही लहजा मेरी पहचान है। "
लेकिन मैंने बहुत से पहाड़ियों को अपने को पहाड़ी कहने में शर्म या संकोच करते देखा है।  शायद उन्हें लगता है अगर हम अपने को पहाड़ी बता देंगे तो अगला हमें हीन या छोटा समझेगा।  गलत है , बिलकुल गलत।   पहाड़ी होना अपने आप में गर्व है।   हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है क्यूंकि हम में पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो का प्रभाव है।   भौगोलिक परिस्थितियों का वहां पर रहने वाले लोगो पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है और यह कुदरती है। 

हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है।  हमारा आचार - व्यवहार थोड़ा अलग होता है।  हम पहाड़ी मेहनती , निडर और साहसी होते है मगर यकीनन थोड़ा संकोची होते है।  ये हमारे संस्कार है।  हम फिजूल का दम्भ नहीं भरते। 
हमारा खाना पीना थोड़ा सा अलग होता है।   हम प्रकृति के बहुत करीब रहकर पले बढे होते है।  हमने विकट परिस्थितियों का मुकाबला बचपन से ही किया होता है इसलिए जल्दी घबराते नहीं है। 

कुदरत ने हम पहाड़ियों को एक विशेष गुण से नवाजा है - वह है किसी भी  परिस्थिती  में अपने आप को ढालना।  ये वो विशेष गुण है जो पहाड़ियों को दुसरो से अलग करता है।  बेशक , हमारी अंग्रेजी अच्छी न हो , हमारी ऊँचाई जरा कम हो , हमारी नाक जरा चपटी हो या फिर हम अपने बोलने में "ठहरा " या " बल " लगाते हो , मगर हमारी ज़िन्दगी जीने की जीजिविषा और संघर्ष करने की ताकत हमें औरो के मुकाबले बहुत ऊंचा खड़ा करती है।   जरुरत सिर्फ इस बात की होती है - हम अपने उद्देश्य के लिए स्पष्ट हो और जो पहाड़ी अपने उद्देश्य के लिए स्पष्ट रहा है उसको आज दुनिया झुक कर सलाम करती है।  गर्व कीजिये की - हम पहाड़ी है और औरो से थोड़ा अलग है। 

Tuesday 9 October 2018

पहाड़ी ककड़ी और राई वाला रायता



अगर आप पहाड़ो में यात्रा कर रहे हो और किसी पहाड़ी भोजनालय में खाना  खाने जाये तो आपको  पहाड़ी ककड़ी राई वाला रायता जरूर मिलेगा।   एक मर्तबान में हल्का पीला सा राई की खुशबू और पहाड़ी ककड़ी की मिठास जब नाक में पहुँचती है तो हर कोई इस रायते को चखना चाहता है।   जैसे ही आप पहला चम्मच उठाते है , राई का तीखापन आपके नाक और कान दोनों को सीधी  अवस्था में ले आता है और उसके बाद ककड़ी और दही मिश्रित वह रायता आपको ऐसा सुकून देता है की बस की यात्रा में हुई थकान काफूर हो जाती है।   जिन लोगो को पहाड़ी घुमावदार सड़को में जी मिचलाता है , उनके लिए तो रामबाण औसधि की तरह काम करता है ये रायता।

 पहाड़ी रायता आमतौर पर पकी हुई पीली ककड़ी से बनता है।  उसको बारीक छीलकर , महीन पीसी हुई राई और दही के साथ मिश्रित किया जाता है।   रायता जितनी देर तक रहेगा , राई अपना रंग और स्वाद उतना अधिक छोड़ती है।  आजकल गावों में ककड़ी का सीजन है तो आपने झालो या पेड़ो में पीली पीली लम्बी और मोटी  ककड़ियाँ देखी होंगी जो आमतौर रायता बनाने के ही काम में आती है।  ये पीली ककड़ियाँ धीरे धीरे लाल हो जाती है।   अब अगर पहाड़ जाएँ तो ये रायता अवश्य खाये और आते हुए एक पकी हुई ककड़ी ले आये और अपने देसी दोस्तों को भी वो रायता बनाकर खिलाये तो उन्हें समझ आएगा की असली रायता होता कैसा है और हाँ, पहाड़ की राई भी साथ में लेते आइयेगा।  तभी तो असली स्वाद आएगा।  नथुने फूलने दीजिये उनके , मगर अंत में यही कहेंगे - वाह ! इसे कहते है असली रायता , पहाड़ी रायता।    हमारा रायता फैलता नहीं है , स्थिर रहता है और वो भी अपने स्वाद के साथ।  

Sunday 7 October 2018

याद है आपको वो दाड़िम और पुदीने की चटनी ?



पहाड़ो में अनार जैसा ही एक और पेड़ होता है , जिसे दाड़िम का पेड़ कहा जाता है।   वैसे तो ये अनार का ही छोटा भाई है , मगर यह उतना मीठा नहीं होता।   यह मीठा और खट्टे का मिश्रण है और इसी से अनारदाना भी बनता है।   इसके बीजो को सुखाया जाता है और फिर पुदीने के साथ इसकी चटनी बनायीं जाती है।   आजकल असोज के महीने में ही अक्सर यह पकता है और इसके दाने निकालकर आप कई छतो के ऊपर इसे देख सकते है। 

दाड़िम मेरा पसंदीदा फल रहा है क्यूंकि यह मीठे और खट्टे का स्वाद एक साथ देता है।  जब इसके सुखाये बीजो को सिलबटे में हरे पुदीने के साथ पीसा जाता है और स्वादानुसार मिर्च का तड़का लगाया जाता है फिर उसके बाद जीभ में जो स्वाद आता है , वह फिर ताउम्र याद रहता है। 

क्या आपने खायी है कभी वो दाड़िम और पुदीने  की चटनी ???? अगर हां , तो याद आया उसका स्वाद।   जिन्होंने नहीं खायी है , पहाड़ से दाड़िम मंगवा लीजिये और पुदीना तो कही भी मिल जायेगा।   बनाइये दाड़िम और पुदीने  की चटनी।   फिर जब चाहे , तब खाइये। 

Friday 5 October 2018

सिलबटे में पिसा हुआ पहाड़ी नूण



मुझे याद है बचपन के वो दिन , जब शाम को स्कूल से घर लौटते थे  बड़ी भूख लगी होती थी।   चार बजे छपरे में एक दो बासी रोटी होती थी और सब्जी  होती नहीं थी , मगर एक कांच के जार में सिलबटे  पिसा हुआ नूण हुआ करता था जिसमे हरी मिर्च और लहसुन भी पिसा हुआ होता था।   क्या स्वाद था  उस नूण का।  पहले हल्का नमक का स्वाद आता था , फिर लहसुन का स्वाद जीभ से टकराता था और अंत में , हरी मिर्च अपना असर दिखाती थी।   वह नूण हमारे लिए वक्त - बेवक्त सब्जी का काम करता था।

नमक को नूण में बदलना आसान था।  नमक  सिलबट्टे में रखो , दो चार हरी मिर्च और लाल मिर्च डालो , दो चार लहसुन की फांके दाल दो और फिर बट्टे से उसे महीन पीस लो।   पहाड़ी नूण तैयार।  फिर चाहे ककड़ी के साथ खाओ या दही में मिलाकर या छाछ में डाल लो।   अलग ही स्वाद आता था।

बाद में भांग के बीज डला नूण भी खाया , वह भी गजब था।  आजकल सुना है इस नूण की लोकप्रियता में इजाफा हो रहा है और दुनिया जहाँ के लोग इस नूण में रूचि दिखा रहे है और कहा जा रहा है की यह नमक स्वास्थ्यवर्धक है।  चलो , बढ़िया है।   शायद पहाड़ी लोगो के स्वस्थ रहने के हुनर को दुनिया भी पहचान रही है।





Wednesday 3 October 2018

पहाड़ो में रामलीला

पहाड़ो की रामलीला का अपना ही एक रंग है।  एक दो महीने के तालीमा के बाद पात्र रामायण के किरदारों में ऐसे घुस जाते है उन्हें बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है।   असोज का महीना पहाड़ो में काम धंधे वाला महीना होता है।   धान कटाई , मडुआ चुटाई , घास के मांग , झुंगर की बालियां - सब लोग व्यस्त रहते है और इसके बाद के नवरात्रो में मनोरंजन के लिए रामलीला मंचन।   शताब्दियों से पहाड़ो में मनोरंजन के साथ एक सामूहिक आयोजन - रामलीला साक्षी रहा है। 

टीवी , मोबाइल फ़ोन और मनोरंजन के तमाम साधनो ने भले ही इसकी चमक फीकी कर दी हो मगर अब भी बहुत सी जगह ये मंचन बदस्तूर जारी है।   सखियों का गायन और जोकर की मसखरी के साथ शुरू होने वाला यह मंचन हर साल जहाँ कुछ कलाकारों को आत्मसंतुष्टि दे जाता है वही रामायण फिर से राम की कहानी को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने में सहायक होता है।   बचपन में अपने घर से २ किलोमीटर दूर रामलीला देखने जाना आज भी याद है।  टोर्च कुछ ही लोगो के पास होता था तो चीड़ के लीसे से मशाल बनाया जाता था और फिर उस मशाल की रौशनी में रामलीला देखने जाना बड़ा रोमांचक होता था। 

पात्रो को उनके अभिनय पर इनाम देने वालो की कमी नहीं होती थी।  एक बुजुर्ग शख्श " रावण " का ऐसा दमदार रोल करते थे की उनका उपनाम ही " रावण " पड़ गया था। 

सूर्पनखा , सुबाहु - मारीच वध , सीता स्वयंवर , खर दूषण वध , लंका दहन , रावण वध के दिन खास तौर पर भीड़ ज्यादा होती थी।  नौ गाँव के बीच बसा वह प्राथमिक विद्यालय का वह मंच उन १० दिनों के लिए रात को गुंजायमान रखता था। 

अच्छी परम्पराओ को सहेज कर चालू रखना उसकी आने वाली पीढ़ी की नैतिक जिम्मेदारी है और ख़ुशी इस बात की है की आज भी पहाड़ो में यह परम्परा जारी है और इसके लिए तमाम वो लोग प्रंशसा के पात्र है जो अभी तक इसको सिद्दत से अपना कर्तव्य मानकर निभा रहे है। 

तो आपकी रामलीला में राम कब कहेंगे - 
" उतारू राज के कपडे , 
बनाऊ वेश मुनियन का।  "

Friday 24 August 2018

चनर दा चाह दुकान और आलूक गुटुक

बड़े छोटे सब उन्हें चनर दा ही कहते थे।   चाय की दूकान थी छोटी सी।  बगल में चक्की भी थी और एक परचून की दूकान भी।   मजमा लगा रहता था।  चनर दा   के चूल्हे में हमेशा एक केतली में पानी उबलता रहता था।  छोटी वाली केतली में चाय हमेशा तैयार।  चनर दा का व्यवहार चुम्बक था , एक बार उनकी चाय पीकर उनके साथ थोड़ा सा फसक हो जाये तो फिर वह हर बार चनर दा की दूकान में ही चाय पीने आता था।   चाय में भले ही चीनी कम हो या चायपत्ती , उनकी संगत में जादू था।  बूढ़े हो या जवान , पुरुष हो या महिला - चाय के साथ चनर दा की दुकान में ऐसे हँसी के फव्वारे छूटते थे की हर कोई खींचा चला आता था।  गाँव के लोगो की ऐसी ऐसी कहानियां सुनाते थे , की हर कोई लोट पोट हो जाता था।   खुद का मजाक भी उड़ाते थे की फिल्मो में चला गया होता तो असरानी और कादरखान तेल बेच रहे होते। 

दिन में वो आलू के गुटके बनाते थे , सिलबटे में मसाले पीसते थे और फिर धुआँर मार के आलू के गुटके बनते थे।   स्कूल से आते हुए जब उस दूकान से गुजरते थे , नथुनों में ऐसी खुसबू घुसती थी की एक प्लेट आलू के गुटके खाकर ही संतोष मिलता था।  साथ में चनर दा ऐसी चुहलबाजी करते थे की स्कूल की थकान वही मिट जाती थी।   चनर दा को गाँव -गंडाव के गजब किस्से याद थे।  गेहूं पिसवाने आयी औरतो भले ही उनकी बहु / बेटियों के बराबर होती थी , मगर वो थोड़ा सा उन्हें भी छेड़ देते थे , मगर उस छेड़छाड़ में ओछापन नहीं होता था।   सुबह से शाम तक मजमा लगा रहता था चनर दा की दूकान में।  किसी के पास पैसे नहीं होते थे , तो उसे भी खिलाने की जबरदस्ती करते थे और कहते थे - खा ले , तेरे बाप से मैं अपने आप पैसे ले लूँगा।   कितनी बार ऐसे चाय और आलू के गुटके हमने भी खाये और चनर दा ने कभी भी पिछले पैसो के बारे में नहीं पूछा।  कई बार तो अपना दिन का अपना भात - दाल भी वह स्कूल से आते बच्चो को खिला देते थे और कहते थे -" क़र्ज़ देना है तुम्हारे बाप का , इसी में उतार दूंगा। "

इतने मिलनसार और हँसमुख थे की बच्चा बच्चा उन्हें जानता था और सबके लिए वो "चनर दा " थे।   कभी कभार तो उनकी पत्नी भी जब गेहूं पिसवाने चक्की आती थी , वह भी कहती थी " चाय पिलाओ चनर दा " और पूरे माहौल में हँसी घुल जाती थी। 

कितना सरल और सहज था वो जीवन , बिना किसी लाग लपेट के।   गाँव में सारे अपने ही लगते थे।  चनर दा गुजर गए तो उनका वह चाय का ठीया भी उनके साथ ही चला गया।   आज जब कभी उस रास्ते से जाने होता है तो उनके ठीये पर उगी घास और गिरे पड़े पत्थर उनकी बरबस याद दिला देते है। उनकी चाय और आलू के गुटको का स्वाद आज भी ताजा है। 

Wednesday 22 August 2018

घट्ट और नौले ( यादें पहाड़ो की - भाग दो )


घट्ट और नौले कभी हमारे पहाड़ो की संस्कृति के अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे मगर धीरे धीरे आधुनिकीकरण ने ये दोनों चीजों को लील लिया।   घट्ट से जुडी बहुत सी यादें आज भी जेहन में ताजा है।   वो नदी किनारे का घट्ट जो पानी के तेज बहाव से जब चलता था और दो पाटो से गेहूं जब आटा ( पीसू ) बनता था तो उस आटे की खुशबु आज तक नाक को याद है।  कितना सरल जमाना था जब घट्ट की पिसाई के रूप में आटे का एक भाग वही रख दिया जाता था। 

नौले भी धीरे धीरे सरंक्षण के  अभाव में सूख गए या अब विलुप्त हो गए है।   गर्मी के दिनों में ठंडा पानी और ठंड के दिनों में गुनगुना पानी वाला वह प्राकृतिक श्रोत अब नहीं के बराबर है।   पहले जब भी गाँव में शादी होकर कोई बहु आती थी तो वह परम्परा के तौर पर नौले तक जरूर जाती थी।  नौले पर होने वाली वह फसक अब व्हाट्सप्प में होने लगी है। 

पहाड़ की ये छोटी छोटी बातें पहाड़ो को प्रकृति से जोड़े रखती थी। 

"भूली गैया हम अब ,
 नौव पाणी , घट्टेक पीसू
 भूली गैया ऊ मिठास अब ,
 बाज पड़ा घट्ट और हराणो पाणी। "

जरूर पढिया - म्यर किताब - "मिगमीर सेरिंग और २१ अन्य कहानियाँ " -  https://pothi.com/pothi/book/anand-mehra-migmir-tsering

Thursday 9 August 2018

पाठी , दवात और बाँस की कलम (यादें पहाड़ की - भाग -एक )

हमारी प्राथमिक शिक्षा गजब थी।  रोज़ सुबह एक झोले में कमेट (सफ़ेद चूना पत्थर  ) को घोलकर भरी हुई दवात होती थी , दो दथुले से छिले हुए बाँस की कलमे और एक पाठी ( स्लेट ) होती थी।  पाठी को कोयले से गजब काला करते थे और सुबह सुबह एक किलोमीटर दूर हँसते खेलते अकेले स्कूल पहुँच जाते थे।  रास्ते में कुछ फलो के पेड़ मिलते थे तो चुपके से दो चार म्योह , प्लुम , खुमानी या एक दो फूल्योनं ककड़ी के हमारे झोले में हमेशा पाए जाते थे।   स्कूल पहुंचकर " मास्साब नमस्ते " और " बहनजी नमस्ते " कहकर खुले आँगन में प्रार्थना करते थे और फिर अपनी पाठी , दवात और कलम लेकर बाहर बरामदे में ही कक्षा शुरू हो जाती थी।  पहली पाली  में अ , आ , क , ख सीखते थे और फिर दूसरी पाली में गिनतियाँ या पहाड़े।  इंटरवल में स्कूल के आगे पीछे चक्कर मारते थे और मिटटी को खोद खोद कर एक दूसरे पर मारते थे।   स्कूल ड्रेस के नाम पर एक खाकी पेंट थी और एक आसमानी रंग का बाजु फटा कुर्ता।   जेब हमेशा एक तरफ से लटकी ही मिलती थी। 
मासाब कहते थे - घर जाने से पहले पाठी के दोनों तरफ भरा होना चाहिए।  एक तरफ वर्णमाला और दूसरी तरफ गिनतियाँ।   कक्षा दो तक वही पाठी हमारी शिक्षा का केंद्र थी।  कक्षा तीन से एक दो किताबे और कॉपियां हमारे झोले में आ गयी।  स्कूल में छुट्टी होने से पहले सब बच्चो को इकठ्ठा बैठाया जाता था और फिर पहाड़े सुनाने का दौर शुरू होता था।  जिसको याद नहीं होता था , मासाब का झन्नाटेदार थप्पड़ सीधा गाल पर होता था।   धीरे धीरे घिसटते पीटते कक्षा पाँच तक पहुँच जाते थे और कक्षा पाँच में पहुंचते ही बोर्ड परीक्षा होती थी।  उस बोर्ड परीक्षा का ऐसा खौफ होता था , की नींद उड़ जाती थी।  अम्मा के लिए पढ़ने से ज्यादा जरुरी काम बैल ढूंढ कर लाना या  छिलुके फाड़ के लाना होता था और बुबु के चिलम में कोयले का इंतजाम करना भी हमारा एक जरुरी काम होता था। 
स्कूल से आते हुए एक नदी रास्ते में पड़ती थी , स्कूल की छुट्टी के बाद २०० मीटर दूर से ही कपडे खोल खाल कर उस नदी में डुबकी मार लेते थे।  तीन बजे की छुट्टी में पाँच बजे घर पहुँचते थे।   भूख के मारे बुरा हाल होता था।   मडुवे की रोटी और पिसा हुआ नूण खाकर बैल ढूढ़ने जंगल चले जाते थे।  रात को पढाई न के बराबर थी।  माँ को भरी हुई पाठी या कॉपी दिखाकर सो जाते थे।   माँ भी सोचती थी कितना पढ़ाते है ये मासाब और बहनजी। 

हमारी प्राथमिक शिक्षा ऐसी थी।   आगे और भी पहाड़ो के किस्से और फसक सुनाता रहूँगा।  उसी प्राथमिक शिक्षा की बदौलत आज थोड़ा बहुत लिखना सीख गया हूँ।   

Monday 30 April 2018

गर्मी ऐगे दाज्यू , अब तो हिटो पहाड़



गर्मी ऐगे दाज्यू , अब तो हिटो पहाड़ 
देवदार बोठो शौ , बांझक जाडू ठंड पाणी 
प्लुम , खुमानी , काफो - खे जाओ , 
आओ , सब यो गर्मी मी , 
आपुण आपुण द्वार खोल जाओ।  

मैदार ठंड हाव चली रे , 
चाड पिटूंग करनी ची चीटाट,
राति ब्याऊ ठंड छू , 
स्वागत करनी यो पहाड़।  

गर्मी ऐगे दाज्यू , अब तो हिटो पहाड़ 
खोल जाओ अब आपुण आपुन घरेक द्वार 
द्याप्तो पूज कर जाओ , 
धर जाओ कराण , 
रक्षा कराल तुमार कुल द्यापत , 
आपुण बच्चो कू ले दिखाओ आपुण जड़ , 
आओ , ए जाओ यो गर्मी पहाड़।  

Tuesday 17 April 2018

क्यापौक , क्याप हेगो ( कुमाउँनी व्यंग्य कविता )

क्याप , क्याप हेगो , 
सही छू हो महाराज , 
आजेक जमान मी भौल मैस हरेगो।  

संस्कार बदल गी , 
फैशन बदल गो , 
गौ गाड़ केकू भौल नी लागेन , 
सबु घर अब शहर मी हेगो।  

मोबाइल फोन अब सबु हाथ एगो , 
एक घरक भीतर आवाज नि दीन , 
व्हाट्सप्प मि " खाऊ आओ " मैसेज चमक गो।  

आपुण खेती बाँझ पड़ी गे , 
अनाज अब मौल हेगो , 
छा -दूध को पी अब , 
घर घर चाहा और कॉफ़ी सुराट हेगो। 

ठंड हाव , ठंड पाणी अब पुराणी बात हेगे , 
नौव सब सूख गी , बौठ डाऊ सब काटी गी ,
शेणी अब मिजात मी मगन छीन , 
मैस ताश और दारू दिगे मस्त छीन।  

क्याप , क्याप हे गो ,
पैदल को चलु अब , 
गाडियाक भुभाट हेगो,  
पहाड़ अब पैली जस नि रेगो।   

Saturday 14 April 2018

एक पहाड़ी शेणी आपबीती


तुम जाहूं एडवेंचर कूछा , ऊ हम रोज़ करनू 
हम पहाड़ा शेणी , रोज ज्यान हाथ मी धरनू।  

बांज काटहु एक फांग मि चढ़ जानु , 
शौक ने यो हमर , मजबूरी छू , 
दोड़ मी गोर बाछ छीन , 
उनेर पेट लेह भरण छू।  

आसान नेह हो दाज्यू , यो पहाड़ा जीवन 
दिन रात मेहनत करण पडू , 
उकाव , भ्योह सब एक करण पडू ,
दुय रोटा खातिर सब करण पडु।  

हाथ मी दाथुल , कमर मी ज्योड़ 
राति निकल जानु , 
घाम तेज हूण हबे , 
पैली घर घटव पहुँचा दिनु।  

फिर घरेक काम ले भाइय , 
नान्तिना खान पीण , 
कपड़ लेह धौंण भाइय , 
आपुण लीजी रती भर टेम नि रून, 
भौनो बोज्यू दिनभर ताश खेलबेर ,
ब्याहु दारू पी बेर " कै करो त्यूल " कुनो भाइय।  

असोज जस मेरी ज़िन्दगी , 
जेठेक जस घाम हेगे , 
मी पहाड़ शेणी हो दाज्यू , 
जवानी मी बूढ़ी हेगे।  

Saturday 31 March 2018

पहाड़ो की चीख पुकार



सोचो जरा ,
कितनी मेहनत से हमारे पुरखो ने , 
इन पर्वतो को काटकर घर बनाये होंगे , 
किन भीषण परिस्थितयो में , 
ये खेत सीढ़ीनुमा बनाये होंगे।  

घने जंगलो के बीच , 
अपना एक गाँव बसाया था , 
बच्चो के सुनहरे भविष्य के लिए , 
न जाने सालो तक पसीना बहाया था।  

ये पहाड़ यूँ ही आबाद नहीं हुए थे , 
हमारे पूर्वजो ने अपना लहू बहाया था , 
बच्चो को मिले एक ताज़ी आबो हवा , 
बस उनकी यही मंशा थी।  

कालांतर में ये सपना चकनाचूर हुआ , 
गांव छोड़कर शहरो की तरफ उनके नौनिहालों का कूच हुआ , 
बंजर हुए गाँव , बेजार खेत खलिहान हुआ ,
शहरो की चकाचौध ने मेरा गाँव मुझसे छीन लिया।  

" स्वर्ग " सी धरती , " देवताओ " के घर पर , 
न जाने ये कैसा कुटिल घात हुआ , 
लटक गए ताले घरो में , 
मेरा स्वर्ग " सरकारों "  के निक्कमेपन का शिकार हुआ।  

पूछ रही है आज चीख चीख कर ये देवभूमि , 
क्यों मेरे अपने ने मुझसे मुँह मोड़ लिया , 
बंजर करके मुझे , 
तुमने कौन सा " कुबेर " का खजाना जोड़ लिया।  

Sunday 25 March 2018

नथ : पहाड़ी महिला की आन , बान और शान



किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वालो की अपनी कुछ खास पहचान होती है जो उनके खान पान से लेकर उनकी वेशभूषा में भी छलकती है।   उत्तराखंड में भी कुछ आभूषण है जो पहाड़ी महिलाओ को एक अलग पहचान देती है जैसे गलोबन्द और नथ या नथुली।   गलोबन्द अब धीरे धीरे प्रचलन से बाहर होता जा रहा है , मगर नथ अब भी परिवर्तित रूप में हमारी उत्तराखंडी महिलाओ की शान रहा है। 

नथ या नथुली , नाक में पहने जाने वाला वो आभूषण है जो प्रत्येक पहाड़ी महिला के सौंदर्य में चार चाँद लगा देता है।   हर शुभ मुहूर्त में पहने जाने वाला यह आभूषण उत्तराखण्डी महिला का सौभाग्य का प्रतीक भी है जो पुरातन काल से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता रहा है।  शादी शुदा महिला के लिए नथ उसकी आन , बान और शान है। 
राजा - रजवाड़ो के समय में महल से निकल कर यह आभूषण कब आम लोगो तक भी पहुँच गया , इस पर इतिहासकार का कोई मत नहीं है।   मगर धीरे धीरे यह सब शादी शुदा महिलाओ के लिए एक अनिवार्य आभूषण बन गया।   आज भी जब कोई पुत्री , बहु बनने के लिए तैयार होती है तो सबसे पहले नथ बनाने की तैयारी की जाती है। 


नथुली का डिज़ाइन समय के हिसाब से बदलता रहा है।   जहाँ पहले यह बड़ी हुई करती थी , अब धीरे धीरे छोटी होनी शुरू हो गयी है ताकि आराम से पहनी जा सके।   टिहरी के नथ दुनियाभर में मशहूर है।   कुमाउनी नथो में कारीगरी ज्यादा नहीं होती , मगर गढ़वाली नथो में नक्काशी भी होती है।    बदलते परिवेश में आज भी " नथ " या " नथुली " अपनी जगह को बरक़रार रखने में कायम है और हमारी पहाड़ी महिलाओ के सौंदर्य को बढ़ाने के साथ हमारी परम्पराओ और  वेशभूषा को ज़िंदा रखे है।  यह हर विवाहित स्त्री की धरोहर है जिस पर उसे गर्व होता है। 


साभार - फोटो प्रतीकात्मक तौर पर गूगल से ली गयी है और इसका अधिकार जिसके पास है , उसी के पास है।  

Thursday 22 March 2018

उत्तराखंड के विकास का सूत्र नाम में ही छिपा है


उत्तराखंड ( Uttrakhand ) के नाम में ही उसका विकास का सूत्र भी छिपा है।   अगर कोई समझने को तैयार हो तो उत्तराखंड का विकास इन पैमानो पर किया जा सकता है। 
U – Unemployment  (बेरोजगारी)
T – Tourism (पर्यटन)
T- Tracking (ट्रेकिंग)
R- Religion (धर्म)
A-Ayurved (आयुर्वेद)
K – Knowledge (ज्ञान और संस्कृति)
H- Habitat  (अनुकूल वातावरण)
A-And  (और)
N-  Natural Resources (प्राकृतिक संसाधन)
D-  Development  (विकास)

बेरोजगारी मुख्यतः उत्तराखंड की मूल समस्या है और पलायन का एक बहुत बड़ा कारण भी है।   उत्तराखंड के पास बेरोजगारी दूर करने के लिए पर्यटन , ट्रेकिंग , धार्मिक स्थानों की बहुतायत , आयुर्वेद के लिए जड़ी बूटियाँ , ज्ञान और साफ़ स्वच्छ वातावरण - ऐसे कुदरती वरदान है जिनपर अगर सरकार ध्यान दे तो बहुत हद तक बेरोजगारी को कम किया जा सकता है। 

जरुरत सिर्फ इस बात की है की प्रकृति द्वारे नवाजे गए इन प्राकृतिक संसाधनों का विकास हो।  सरकार और लोग यदि एकजुट हो जाये तो उत्तराखंड के विकास को कोई नहीं रोक सकता।  सरकार को प्रदेश के प्रति अपने दायित्व को समझना चाहिए और लोगो को भी अपने अपने स्तर पर सरकार का साथ देकर हाथ बँटाना चाहिए।  विकास के लिए अलग से कोई सूत्र खोजने की जरुरत नहीं है अगर आप उत्तराखंड को ही समझ ले तो समाधान  नाम में निहित है। 

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...