सोचो जरा ,
कितनी मेहनत से हमारे पुरखो ने ,
इन पर्वतो को काटकर घर बनाये होंगे ,
किन भीषण परिस्थितयो में ,
ये खेत सीढ़ीनुमा बनाये होंगे।
घने जंगलो के बीच ,
अपना एक गाँव बसाया था ,
बच्चो के सुनहरे भविष्य के लिए ,
न जाने सालो तक पसीना बहाया था।
ये पहाड़ यूँ ही आबाद नहीं हुए थे ,
हमारे पूर्वजो ने अपना लहू बहाया था ,
बच्चो को मिले एक ताज़ी आबो हवा ,
बस उनकी यही मंशा थी।
कालांतर में ये सपना चकनाचूर हुआ ,
गांव छोड़कर शहरो की तरफ उनके नौनिहालों का कूच हुआ ,
बंजर हुए गाँव , बेजार खेत खलिहान हुआ ,
शहरो की चकाचौध ने मेरा गाँव मुझसे छीन लिया।
" स्वर्ग " सी धरती , " देवताओ " के घर पर ,
न जाने ये कैसा कुटिल घात हुआ ,
लटक गए ताले घरो में ,
मेरा स्वर्ग " सरकारों " के निक्कमेपन का शिकार हुआ।
पूछ रही है आज चीख चीख कर ये देवभूमि ,
क्यों मेरे अपने ने मुझसे मुँह मोड़ लिया ,
बंजर करके मुझे ,
तुमने कौन सा " कुबेर " का खजाना जोड़ लिया।
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