Saturday 31 March 2018

पहाड़ो की चीख पुकार



सोचो जरा ,
कितनी मेहनत से हमारे पुरखो ने , 
इन पर्वतो को काटकर घर बनाये होंगे , 
किन भीषण परिस्थितयो में , 
ये खेत सीढ़ीनुमा बनाये होंगे।  

घने जंगलो के बीच , 
अपना एक गाँव बसाया था , 
बच्चो के सुनहरे भविष्य के लिए , 
न जाने सालो तक पसीना बहाया था।  

ये पहाड़ यूँ ही आबाद नहीं हुए थे , 
हमारे पूर्वजो ने अपना लहू बहाया था , 
बच्चो को मिले एक ताज़ी आबो हवा , 
बस उनकी यही मंशा थी।  

कालांतर में ये सपना चकनाचूर हुआ , 
गांव छोड़कर शहरो की तरफ उनके नौनिहालों का कूच हुआ , 
बंजर हुए गाँव , बेजार खेत खलिहान हुआ ,
शहरो की चकाचौध ने मेरा गाँव मुझसे छीन लिया।  

" स्वर्ग " सी धरती , " देवताओ " के घर पर , 
न जाने ये कैसा कुटिल घात हुआ , 
लटक गए ताले घरो में , 
मेरा स्वर्ग " सरकारों "  के निक्कमेपन का शिकार हुआ।  

पूछ रही है आज चीख चीख कर ये देवभूमि , 
क्यों मेरे अपने ने मुझसे मुँह मोड़ लिया , 
बंजर करके मुझे , 
तुमने कौन सा " कुबेर " का खजाना जोड़ लिया।  

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