हमारी प्राथमिक शिक्षा गजब थी। रोज़ सुबह एक झोले में कमेट (सफ़ेद चूना पत्थर ) को घोलकर भरी हुई दवात होती थी , दो दथुले से
छिले हुए बाँस की कलमे और एक पाठी ( स्लेट ) होती थी। पाठी को कोयले से गजब काला करते थे और सुबह सुबह
एक किलोमीटर दूर हँसते खेलते अकेले स्कूल पहुँच जाते थे। रास्ते में कुछ फलो के पेड़ मिलते थे तो चुपके से
दो चार म्योह , प्लुम , खुमानी या एक दो फूल्योनं ककड़ी के हमारे झोले में हमेशा पाए
जाते थे। स्कूल पहुंचकर " मास्साब नमस्ते
" और " बहनजी नमस्ते " कहकर खुले आँगन में प्रार्थना करते थे और फिर
अपनी पाठी , दवात और कलम लेकर बाहर बरामदे में ही कक्षा शुरू हो जाती थी। पहली पाली
में अ , आ , क , ख सीखते थे और फिर दूसरी पाली में गिनतियाँ या पहाड़े। इंटरवल में स्कूल के आगे पीछे चक्कर मारते थे और
मिटटी को खोद खोद कर एक दूसरे पर मारते थे।
स्कूल ड्रेस के नाम पर एक खाकी पेंट थी और एक आसमानी रंग का बाजु फटा कुर्ता। जेब हमेशा एक तरफ से लटकी ही मिलती थी।
मासाब कहते थे - घर जाने से पहले पाठी के दोनों
तरफ भरा होना चाहिए। एक तरफ वर्णमाला और दूसरी
तरफ गिनतियाँ। कक्षा दो तक वही पाठी हमारी
शिक्षा का केंद्र थी। कक्षा तीन से एक दो किताबे
और कॉपियां हमारे झोले में आ गयी। स्कूल में
छुट्टी होने से पहले सब बच्चो को इकठ्ठा बैठाया जाता था और फिर पहाड़े सुनाने का दौर
शुरू होता था। जिसको याद नहीं होता था , मासाब
का झन्नाटेदार थप्पड़ सीधा गाल पर होता था।
धीरे धीरे घिसटते पीटते कक्षा पाँच
तक पहुँच जाते थे और कक्षा पाँच में पहुंचते ही बोर्ड परीक्षा होती थी। उस बोर्ड परीक्षा का ऐसा खौफ होता था , की नींद
उड़ जाती थी। अम्मा के लिए पढ़ने से ज्यादा जरुरी
काम बैल ढूंढ कर लाना या छिलुके फाड़ के लाना
होता था और बुबु के चिलम में कोयले का इंतजाम करना भी हमारा एक जरुरी काम होता था।
स्कूल से आते हुए एक नदी रास्ते में पड़ती थी
, स्कूल की छुट्टी के बाद २०० मीटर दूर से ही कपडे खोल खाल कर उस नदी में डुबकी मार
लेते थे। तीन बजे की छुट्टी में पाँच बजे घर
पहुँचते थे। भूख के मारे बुरा हाल होता था। मडुवे की रोटी और पिसा हुआ नूण खाकर बैल ढूढ़ने
जंगल चले जाते थे। रात को पढाई न के बराबर
थी। माँ को भरी हुई पाठी या कॉपी दिखाकर सो
जाते थे। माँ भी सोचती थी कितना पढ़ाते है
ये मासाब और बहनजी।
आप के किस्से और फसक कमाल के है सर।।
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