Monday 29 October 2018

रंगवाली पिछौड़ा : पहाड़ी महिलाओ की शान



उत्तराखंड की महिलाओ की वेशभूषा वैसे तो समय के साथ बदलती गयी है और आज के समय में कमोबेश अब ये एक जैसी हो गयी है मगर एक पहनावा अब भी उन महिलाओ को शुभ अवसरों में अलग सुशोभित करता है , वह है - पीले कपडे पर सूर्य जैसी लालिमा लिए गोलाकार धब्बे जिसे पहाड़ी महिलाएं " पिछौड़ा " कहती है और पूरे रुतबे और शान से पहनती है।  और यह पिछौड़ा न केवल उनकी सुंदरता बढ़ाता है , अपितु उनके आत्म विश्वास में भी बढ़ोतरी करता है। 

पिछौड़ा सबसे पहले कहाँ से आया ? इसके बारे में मत स्पष्ट नहीं है मगर पहले जहाँ यह केवल दुल्हन द्वारा पहना जाता था , धीरे धीरे सब मंगल कार्यो में सभी सुहागन महिलाओ द्वारा पहना जाने लगा है।   किसी भी लड़की को सबसे पहले पिछोड़ा पहनने का अधिकार उसकी शादी के दिन मिलता है और उसके बाद वह उसकी ज़िन्दगी के एक महत्वपूर्ण परिधान बन जाता है। 

कालांतर  में , चिकन के 3  मीटर गुणा 1. 5 मीटर के सफ़ेद  कपडे को प्राकृतिक रंग बनाकर जैसे हल्दी या किलमोड़े की जड़ो से तैयार पीले रंग से रंगा जाता था और लाल रंग के लिए कच्ची हल्दी में नीम्बू निचोड़ कर सुहागा डालकर रात भर एक तांबे के बर्तन में रखा जाता था।  फिर उस लाल रंग से इस पीले रंग के  कपडे में गोलाकार लाल धब्बे बनाये जाते थे।   पिछौड़े के चारो किनारो पर सूर्य , चन्द्रमा , शंख आदि बनाये जाते थे। 

पीला और लाल रंग ही क्यों ?
पीला रंग महिलाओ के भौतिक जगत के साथ जुड़ाव का प्रतीक है , यह प्रसन्नता और ज्ञान का भी प्रतीक है।    लाल रंग सम्पन्नता , जीवन की खुशहाली, श्रृंगार और  ऊर्जा का प्रतीक है।  किनारो पर बनाये जाने वाले सूर्य , चन्द्रमा , शंख भी प्रतीकात्मक है। 

धीरे धीरे यह पिछौड़ा , पर्वतीय समाज की महिलाओ का ऐसा परिधान बन गया की हर शुभ मुहूर्त में अब इसका पहना जाना अनिवार्य सा हो गया है।   आज भी पर्वतीय समाज का कही भी कोई शुभ कार्य संपन्न हो रहा हो , घर की सुहागन महिलाये इसे जरूर धारण करने का प्रयास करती है।   हाथो से पिछौड़े रंगने की कला अब धीरे धीरे विलुप्ति की कगार पर है , इसकी जगह अब प्रिंटेड पिछौड़े बाजार में आसानी से उपलब्ध हो गए है। 

जब एक पहाड़ी महिला नाक में नथ , गले में गलोबन्द ,कर्णफूल और माँगटीके के साथ इस रंगवाली पिछौड़े को धारण करती है तो प्रकृति भी उसके सौंदर्य की तारीफ किये बिना नहीं रहती।   यह हमारा परम्परागत परिधान है और इसको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना हमारी जिम्मेदारी है। 

"गौव मी गलोबन्दा , कानो मी कर्णफूल छाजी री 
  रंगीली पिछौड़ा पेरी , म्यार पहाडेक नारी भलु लागि री। " 

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इस पिछौड़े का सफर बदस्तूर जारी है और शायद रहेगा।   क्या आपके घर की महिलाओ के पास मौजूद है -यह रंगवाली पिछौड़ा ? 

फोटो साभार - गूगल 

Wednesday 24 October 2018

आपको याद है पहाड़ी "बीनबाजा" या मशकबीन या बैगपाइपर की धुन ?



अगर आप किसी पहाड़ी शादी में शामिल होते है तो आपको पहाड़ी बैंड जरूर सुनने को मिलता है।  उस बैंड में आमतौर पर मशकबीन जिसे हम पहाड़ो में "बीनबाजा " के नाम से ज्यादा जानते है।  जैसे ही कलाकार इस बीनबाजा में फूंक मारता है और फिर धीरे धीरे उसमे से सुर लहरिया निकलने लगती है फिर ढोल और नगाड़ा में थाप पड़ती है तो ऐसा समां बंधता है की पाँव पहाड़ी धुनों पर खुद ब खुद थिरकने लगते है। 

पहाड़ो में यह बैगपाइपर पहुंचने की कहानी लगभग 100 ~  150 साल पुरानी है।  स्कॉटलैंड के इस राष्ट्रीय वाद्ययंत्र को पहाड़ो तक पहुंचाने का श्रेय अंग्रेजो को जाता है।   शुरुवात में सिर्फ फ़ौज में बजने वाला यह वाद्ययंत्र धीरे धीरे हम पहाड़ियों के लोक संगीत में रच बस गया। रिटायर हुए पहाड़ी फौजियों ने इस कला को हमारी पहाड़ी संस्कृति का हिस्सा बना दिया।    इसकी जरुरत भी थी क्यूंकि तब तक पहाड़ो में फूंक मारकर बजाने वाले वाद्ययंत्रों की कमी थी।   ढोल , नगाड़े , हुड़का , दमऊ सब हाथ से बजाये जाने वाले वाद्य यन्त्र थे।  इस बैगपाइपर ने एक खाली जगह को भरकर पहाड़ी वाद्य यंत्रो को पूर्ण कर दिया।  फिर तो हर शुभ उत्सव पर इस "बीनबाजा " ने अपनी धुनों से गजब समां बांधना शुरू कर दिया।  जब कलाकार इस "बीनबाजे " पर " टक -टकाटक कमला " या 'बम्बई से आया मेरा दोस्त " बजाता था तो नचैये ऐसे थिरकते थे की रुकने का नाम ही नहीं लेते थे। 

मगर धीरे धीरे अब इस "बीनबाजा " को बजाने वाले कम हो रहे है क्यूंकि इस वाद्य यन्त्र को बजाने के लिए सांसो में नियंत्रण की कठोर साधना करनी पड़ती है जिसे आज का युवा नहीं करना चाहता।  अगर सरकार का सरंक्षण  या सामाजिक चेतना का अभाव रहा तो यह "मशकबीन " धीरे धीरे हमारे लोक संगीत से गायब हो जायेगा और फिर हमें नहीं सुनाई देगी इसकी मधुर धुन। 

याद आयी आपको "बीनबाजा " की धुन?


चित्र साभार - गूगल 

Sunday 21 October 2018

भट्ट के डुबुक (भटिया ) और चुड़कानी




उत्तराखंड के खाने का जायका अलग ही होता है।   पहाड़ो में सोयाबीन की एक किस्म बहुतायत में उगाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में "भट्ट " कहा जाता है।   यह छोटे छोटे काले रंग का छिलके लिए एक किस्म की दाल या सोयाबीन का प्रकार होता है जिसमे प्रोटीन और आयरन प्रचुर मात्रा में होता है। अंग्रेजी में इसे   "ब्लैक बीन " कहा जाता है।  इस भट्ट से कुमाऊं क्षेत्र में तीन तरह के व्यंजन बनाये जाते है - डुबुक ( भटिया ) , चुड़कानी और जौउ। 

डुबुक बनाने से पहले भट्टो को भिगोया जाता है और अच्छे से भीगने के बाद इन्हे सिलबट्टे में या मिक्सर में पीस लिया जाता है और उसके बाद तय विधि से भट्ट के डुबुक (भटिया ) बनाया जाता है और इसके साथ आमतौर पर " भात " बनाया जाता है। 

चुड़कानी में आमतौर पर साबुत भट्ट डाले जाते है।  भट्टो को घी में फ्राई कर लिया जाता है और फिर आटे या बेसन को तलकर भट्ट मिलाये जाते है और फिर कढ़ाई में धीमी आंच में इसे पकाया जाता है।   इसे भी " भात " के साथ हरा धनिया डालकर खाया जाता है। 

भट्ट का जौउ बनाने की विधि डुबके बनाने जैसी ही है मगर इसमें थोड़ा चावल को पीसकर भी मिलाया जाता है।  कढ़ाई में चावल और भट्ट को पीसकर धीमी आंच में पकाया जाता है और फिर पहाड़ी नूण के साथ खाने में इसका स्वाद दुगुना हो जाता है। 

आज के आधुनिक व्यंजनों से अलग पहाड़ो में बड़े चाव से खाया जाने वाली ये सोयाबीन की दाल सदियों से पहाड़ियों को वहां की विषम परिस्थितियों से मुकाबला करने की अंदरूनी ताकत प्रदान करती है।   

Thursday 18 October 2018

नहीं भूलती वो यादें


नहीं भूलती वो यादें , 
वो पाथरो के घर , 
वो ऊँचे नीचे रास्ते ,  
वो नौले का पानी , 
वो बाँज की बुझाणि , 
वो आमा बुबु के फसक , 
वो भट्ट के डुबुक , 
वो गाँव की बखाई , 
वो झोड़े , चांचरी 
वो जागर की धुन , 
वो "भुला " का अपनापन ,
वो "दाज्यू " का प्यार , 
वो "बेणी " का दुलार , 
वो "बौजी " की झिड़क , 
वो " ईजा " की फिक्र , 
वो गोल्ज्यू का थान , 
वो "शिवालय " की शान , 
वो "बुराँश " के फूल , 
वो "काफल " का स्वाद , 
वो "हिसालू ", "किलमोड़े "
वो " पालक " का साग ,
वो रास्तो पर बेख़ौफ़ धिरकना ,
वो सब "अपने" है का एहसास , 
नहीं भूलती है वो यादें , 
कहीं भी रहे हम , 
पहाड़ों की बहुत आती है याद।  

Sunday 14 October 2018

सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास याद है आपको ?



अगर आप पहाड़ी है तो एक घास से आपका जरूर कभी न कभी पाला पड़ा होगा और उसकी चुभन ने आपके आँसू जरूर निकाले होंगे।  कभी सजा के तौर पर या कभी अनजाने में इस घास से आपका सामना जरूर हुआ होगा।  

सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास अंग्रेजी में नेटल (Nettle ) कहा जाता है. इसका वानस्पतिक नाम अर्टिका पर्वीफ्लोरा  है।  कुमाऊंनी में इसे सिसूण कहते हैं और गढ़वाल में यह कंडाली के नाम से जाना जाता है।  बिच्छू घास उत्तराखंड और मध्य हिमालय क्षेत्र में होती है. यह घास मैदानी इलाकों में नहीं होती। बिच्छू घास में पतले कांटे होते हैं और चौड़े पत्ते होते है और  यदि किसी को छू जाये तो इसमें बिच्छू के काटने जैसी पीड़ा होती है और बहुत लगने से सूजन या फफोले हो जाते है।  बचपन में सजा के तौर पर स्कूल में मास्साब और ईजा ने सजा देने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया है।  

यह सिसूण या कंडाली बहुत उपयोगी है और आयुर्वेद में इसका खासा महत्व है।  आमतौर पर बुखार आने, शरीर में कमजोरी होने, तंत्र-मंत्र से बीमारी भगाने, पित्त दोष, गठिया, शरीर के किसी हिस्से में मोच, जकड़न और मलेरिया जैसे बीमारी को दूर भागने में उपयोग करते हैं।  बिच्छू घास की पत्तियों पर छोटे-छोटे बालों जैसे तीखे और सुई नुमा कांटे होते हैं।   पत्तियों के हाथ या शरीर के किसी अन्य अंग में लगते ही ये कांटे शरीर में धस जाते हेयर और शरीर में  झनझनाहट शुरू हो जाती है, जो कंबल से रगड़ने या तेल मालिश से ही जाती है. अगर उस हिस्से में पानी लग गया तो जलन और बढ़ जाती है.

पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी साग खाया जाता  हैक्यूंकि  इसकी तासीर गर्म होती है और यदि हम स्वाद की बात करे तो पालक के साग की तरह ही स्वादिष्ट भी होती है  इसमें Vitamin A,B,D , आइरन (Iron ) , कैल्सियम और मैगनीज़ प्रचुर मात्रा में होता है.  माना जाता है कि बिच्छू घास में काफी आयरन होता है। 

वैज्ञानिक इससे बुखार भगाने की दवा तैयार करने में जुटे हैं. प्राथमिक प्रयोगों ने बिच्छू घास के बुखार भगाने के गुण की वैज्ञानिक पुष्टि कर दी है। 

अब याद आया आपको सिसूण या कंडाली या बिच्छू घास ?  पहाड़ी लोग ऐसे ही स्वस्थ नहीं होते , कभी न कभी सिसूण का डंक उन्हें तमाम बीमारियों से बचा कर रखता है। 


जय देवभूमि , जय उत्तराखंड।   

Thursday 11 October 2018

हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है।

 

कल एक ने पूछा ," आप पहाड़ी हो ?" , मैंने तुरंत उत्तर दिया ," हाँ  जी।  बिलकुल पहाड़ी हूँ। "
मैंने उससे पूछा ," आपको कैसे लगा ?" तो उसने उतर दिया ," आपके बोलने में पहाड़ी लहजा है। " तो मैं बोला ," फिर तो यही लहजा मेरी पहचान है। "
लेकिन मैंने बहुत से पहाड़ियों को अपने को पहाड़ी कहने में शर्म या संकोच करते देखा है।  शायद उन्हें लगता है अगर हम अपने को पहाड़ी बता देंगे तो अगला हमें हीन या छोटा समझेगा।  गलत है , बिलकुल गलत।   पहाड़ी होना अपने आप में गर्व है।   हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है क्यूंकि हम में पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ो का प्रभाव है।   भौगोलिक परिस्थितियों का वहां पर रहने वाले लोगो पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है और यह कुदरती है। 

हाँ , हम पहाड़ी थोड़ा अलग होते है।  हमारा आचार - व्यवहार थोड़ा अलग होता है।  हम पहाड़ी मेहनती , निडर और साहसी होते है मगर यकीनन थोड़ा संकोची होते है।  ये हमारे संस्कार है।  हम फिजूल का दम्भ नहीं भरते। 
हमारा खाना पीना थोड़ा सा अलग होता है।   हम प्रकृति के बहुत करीब रहकर पले बढे होते है।  हमने विकट परिस्थितियों का मुकाबला बचपन से ही किया होता है इसलिए जल्दी घबराते नहीं है। 

कुदरत ने हम पहाड़ियों को एक विशेष गुण से नवाजा है - वह है किसी भी  परिस्थिती  में अपने आप को ढालना।  ये वो विशेष गुण है जो पहाड़ियों को दुसरो से अलग करता है।  बेशक , हमारी अंग्रेजी अच्छी न हो , हमारी ऊँचाई जरा कम हो , हमारी नाक जरा चपटी हो या फिर हम अपने बोलने में "ठहरा " या " बल " लगाते हो , मगर हमारी ज़िन्दगी जीने की जीजिविषा और संघर्ष करने की ताकत हमें औरो के मुकाबले बहुत ऊंचा खड़ा करती है।   जरुरत सिर्फ इस बात की होती है - हम अपने उद्देश्य के लिए स्पष्ट हो और जो पहाड़ी अपने उद्देश्य के लिए स्पष्ट रहा है उसको आज दुनिया झुक कर सलाम करती है।  गर्व कीजिये की - हम पहाड़ी है और औरो से थोड़ा अलग है। 

Tuesday 9 October 2018

पहाड़ी ककड़ी और राई वाला रायता



अगर आप पहाड़ो में यात्रा कर रहे हो और किसी पहाड़ी भोजनालय में खाना  खाने जाये तो आपको  पहाड़ी ककड़ी राई वाला रायता जरूर मिलेगा।   एक मर्तबान में हल्का पीला सा राई की खुशबू और पहाड़ी ककड़ी की मिठास जब नाक में पहुँचती है तो हर कोई इस रायते को चखना चाहता है।   जैसे ही आप पहला चम्मच उठाते है , राई का तीखापन आपके नाक और कान दोनों को सीधी  अवस्था में ले आता है और उसके बाद ककड़ी और दही मिश्रित वह रायता आपको ऐसा सुकून देता है की बस की यात्रा में हुई थकान काफूर हो जाती है।   जिन लोगो को पहाड़ी घुमावदार सड़को में जी मिचलाता है , उनके लिए तो रामबाण औसधि की तरह काम करता है ये रायता।

 पहाड़ी रायता आमतौर पर पकी हुई पीली ककड़ी से बनता है।  उसको बारीक छीलकर , महीन पीसी हुई राई और दही के साथ मिश्रित किया जाता है।   रायता जितनी देर तक रहेगा , राई अपना रंग और स्वाद उतना अधिक छोड़ती है।  आजकल गावों में ककड़ी का सीजन है तो आपने झालो या पेड़ो में पीली पीली लम्बी और मोटी  ककड़ियाँ देखी होंगी जो आमतौर रायता बनाने के ही काम में आती है।  ये पीली ककड़ियाँ धीरे धीरे लाल हो जाती है।   अब अगर पहाड़ जाएँ तो ये रायता अवश्य खाये और आते हुए एक पकी हुई ककड़ी ले आये और अपने देसी दोस्तों को भी वो रायता बनाकर खिलाये तो उन्हें समझ आएगा की असली रायता होता कैसा है और हाँ, पहाड़ की राई भी साथ में लेते आइयेगा।  तभी तो असली स्वाद आएगा।  नथुने फूलने दीजिये उनके , मगर अंत में यही कहेंगे - वाह ! इसे कहते है असली रायता , पहाड़ी रायता।    हमारा रायता फैलता नहीं है , स्थिर रहता है और वो भी अपने स्वाद के साथ।  

Sunday 7 October 2018

याद है आपको वो दाड़िम और पुदीने की चटनी ?



पहाड़ो में अनार जैसा ही एक और पेड़ होता है , जिसे दाड़िम का पेड़ कहा जाता है।   वैसे तो ये अनार का ही छोटा भाई है , मगर यह उतना मीठा नहीं होता।   यह मीठा और खट्टे का मिश्रण है और इसी से अनारदाना भी बनता है।   इसके बीजो को सुखाया जाता है और फिर पुदीने के साथ इसकी चटनी बनायीं जाती है।   आजकल असोज के महीने में ही अक्सर यह पकता है और इसके दाने निकालकर आप कई छतो के ऊपर इसे देख सकते है। 

दाड़िम मेरा पसंदीदा फल रहा है क्यूंकि यह मीठे और खट्टे का स्वाद एक साथ देता है।  जब इसके सुखाये बीजो को सिलबटे में हरे पुदीने के साथ पीसा जाता है और स्वादानुसार मिर्च का तड़का लगाया जाता है फिर उसके बाद जीभ में जो स्वाद आता है , वह फिर ताउम्र याद रहता है। 

क्या आपने खायी है कभी वो दाड़िम और पुदीने  की चटनी ???? अगर हां , तो याद आया उसका स्वाद।   जिन्होंने नहीं खायी है , पहाड़ से दाड़िम मंगवा लीजिये और पुदीना तो कही भी मिल जायेगा।   बनाइये दाड़िम और पुदीने  की चटनी।   फिर जब चाहे , तब खाइये। 

Friday 5 October 2018

सिलबटे में पिसा हुआ पहाड़ी नूण



मुझे याद है बचपन के वो दिन , जब शाम को स्कूल से घर लौटते थे  बड़ी भूख लगी होती थी।   चार बजे छपरे में एक दो बासी रोटी होती थी और सब्जी  होती नहीं थी , मगर एक कांच के जार में सिलबटे  पिसा हुआ नूण हुआ करता था जिसमे हरी मिर्च और लहसुन भी पिसा हुआ होता था।   क्या स्वाद था  उस नूण का।  पहले हल्का नमक का स्वाद आता था , फिर लहसुन का स्वाद जीभ से टकराता था और अंत में , हरी मिर्च अपना असर दिखाती थी।   वह नूण हमारे लिए वक्त - बेवक्त सब्जी का काम करता था।

नमक को नूण में बदलना आसान था।  नमक  सिलबट्टे में रखो , दो चार हरी मिर्च और लाल मिर्च डालो , दो चार लहसुन की फांके दाल दो और फिर बट्टे से उसे महीन पीस लो।   पहाड़ी नूण तैयार।  फिर चाहे ककड़ी के साथ खाओ या दही में मिलाकर या छाछ में डाल लो।   अलग ही स्वाद आता था।

बाद में भांग के बीज डला नूण भी खाया , वह भी गजब था।  आजकल सुना है इस नूण की लोकप्रियता में इजाफा हो रहा है और दुनिया जहाँ के लोग इस नूण में रूचि दिखा रहे है और कहा जा रहा है की यह नमक स्वास्थ्यवर्धक है।  चलो , बढ़िया है।   शायद पहाड़ी लोगो के स्वस्थ रहने के हुनर को दुनिया भी पहचान रही है।





Wednesday 3 October 2018

पहाड़ो में रामलीला

पहाड़ो की रामलीला का अपना ही एक रंग है।  एक दो महीने के तालीमा के बाद पात्र रामायण के किरदारों में ऐसे घुस जाते है उन्हें बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है।   असोज का महीना पहाड़ो में काम धंधे वाला महीना होता है।   धान कटाई , मडुआ चुटाई , घास के मांग , झुंगर की बालियां - सब लोग व्यस्त रहते है और इसके बाद के नवरात्रो में मनोरंजन के लिए रामलीला मंचन।   शताब्दियों से पहाड़ो में मनोरंजन के साथ एक सामूहिक आयोजन - रामलीला साक्षी रहा है। 

टीवी , मोबाइल फ़ोन और मनोरंजन के तमाम साधनो ने भले ही इसकी चमक फीकी कर दी हो मगर अब भी बहुत सी जगह ये मंचन बदस्तूर जारी है।   सखियों का गायन और जोकर की मसखरी के साथ शुरू होने वाला यह मंचन हर साल जहाँ कुछ कलाकारों को आत्मसंतुष्टि दे जाता है वही रामायण फिर से राम की कहानी को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने में सहायक होता है।   बचपन में अपने घर से २ किलोमीटर दूर रामलीला देखने जाना आज भी याद है।  टोर्च कुछ ही लोगो के पास होता था तो चीड़ के लीसे से मशाल बनाया जाता था और फिर उस मशाल की रौशनी में रामलीला देखने जाना बड़ा रोमांचक होता था। 

पात्रो को उनके अभिनय पर इनाम देने वालो की कमी नहीं होती थी।  एक बुजुर्ग शख्श " रावण " का ऐसा दमदार रोल करते थे की उनका उपनाम ही " रावण " पड़ गया था। 

सूर्पनखा , सुबाहु - मारीच वध , सीता स्वयंवर , खर दूषण वध , लंका दहन , रावण वध के दिन खास तौर पर भीड़ ज्यादा होती थी।  नौ गाँव के बीच बसा वह प्राथमिक विद्यालय का वह मंच उन १० दिनों के लिए रात को गुंजायमान रखता था। 

अच्छी परम्पराओ को सहेज कर चालू रखना उसकी आने वाली पीढ़ी की नैतिक जिम्मेदारी है और ख़ुशी इस बात की है की आज भी पहाड़ो में यह परम्परा जारी है और इसके लिए तमाम वो लोग प्रंशसा के पात्र है जो अभी तक इसको सिद्दत से अपना कर्तव्य मानकर निभा रहे है। 

तो आपकी रामलीला में राम कब कहेंगे - 
" उतारू राज के कपडे , 
बनाऊ वेश मुनियन का।  "

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...