अगर आप किसी पहाड़ी शादी में शामिल होते है तो आपको पहाड़ी बैंड जरूर सुनने को मिलता है। उस बैंड में आमतौर पर मशकबीन जिसे हम पहाड़ो में "बीनबाजा " के नाम से ज्यादा जानते है। जैसे ही कलाकार इस बीनबाजा में फूंक मारता है और फिर धीरे धीरे उसमे से सुर लहरिया निकलने लगती है फिर ढोल और नगाड़ा में थाप पड़ती है तो ऐसा समां बंधता है की पाँव पहाड़ी धुनों पर खुद ब खुद थिरकने लगते है।
पहाड़ो में यह बैगपाइपर पहुंचने की कहानी लगभग 100 ~ 150 साल पुरानी है। स्कॉटलैंड के इस राष्ट्रीय वाद्ययंत्र को पहाड़ो तक पहुंचाने का श्रेय अंग्रेजो को जाता है। शुरुवात में सिर्फ फ़ौज में बजने वाला यह वाद्ययंत्र धीरे धीरे हम पहाड़ियों के लोक संगीत में रच बस गया। रिटायर हुए पहाड़ी फौजियों ने इस कला को हमारी पहाड़ी संस्कृति का हिस्सा बना दिया। इसकी जरुरत भी थी क्यूंकि तब तक पहाड़ो में फूंक मारकर बजाने वाले वाद्ययंत्रों की कमी थी। ढोल , नगाड़े , हुड़का , दमऊ सब हाथ से बजाये जाने वाले वाद्य यन्त्र थे। इस बैगपाइपर ने एक खाली जगह को भरकर पहाड़ी वाद्य यंत्रो को पूर्ण कर दिया। फिर तो हर शुभ उत्सव पर इस "बीनबाजा " ने अपनी धुनों से गजब समां बांधना शुरू कर दिया। जब कलाकार इस "बीनबाजे " पर " टक -टकाटक कमला " या 'बम्बई से आया मेरा दोस्त " बजाता था तो नचैये ऐसे थिरकते थे की रुकने का नाम ही नहीं लेते थे।
मगर धीरे धीरे अब इस "बीनबाजा " को बजाने वाले कम हो रहे है क्यूंकि इस वाद्य यन्त्र को बजाने के लिए सांसो में नियंत्रण की कठोर साधना करनी पड़ती है जिसे आज का युवा नहीं करना चाहता। अगर सरकार का सरंक्षण या सामाजिक चेतना का अभाव रहा तो यह "मशकबीन " धीरे धीरे हमारे लोक संगीत से गायब हो जायेगा और फिर हमें नहीं सुनाई देगी इसकी मधुर धुन।
याद आयी आपको "बीनबाजा " की धुन?
चित्र साभार - गूगल
Nice sir ji..🙏🙏
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