Monday 24 December 2018

आण- काथ ( पहेलियाँ और कहानियाँ )


उत्तराखंड में अधिकतर भागो में कड़ाके की ठंड पड़ती है और सर्दियों के दिनों में सूरज भी जल्दी ढल जाता है।   राते लम्बी होती है।   एक वह दौर था , जब टीवी और मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे।   उस समय रात को बड़े बूढ़े या ईजा  आण- काथ सुनाकर समय व्यतीत करती थी।   एक कहानी मैंने भी बचपन में बहुत सुनी थी - " चल तुमड़ी बाट बाट , मैके जाणु बुड़ीय बात "

पहलियों को आण कहा जाता था जैसे " भम बुकि , माट मी लुकी " का उत्तर - मूली होता था।   घर के छोटे , नौजवान और बुजुर्ग अंगीठी में कोयला जलाकर एक जगह आग तापते थे और फिर मूंगफली या भुने भट्ट खाये जाते थे और फिर शुरू होता था - आण- काथ का दौर।  परिवार के बुजुर्ग अपने अनुभव साझा करते थे , खूब हंसी ख़ुशी का दौर चलता था।   सबसे बड़ी बात वो आग की अँगीठी या सँगेड़ी सारे परिवार को एकजुट कर देती थी।   सब गिले - शिकवे उसी अँगीठी के इर्द गिर्द सुलझ जाते थे। 

बाँज के लकड़ियों के कोयले बहुत देर तक गर्मी देते थे और चीड़ के फल जिसे " ठीठे " कहा जाता था , बड़ी जल्दी राख हो जाते थे। वो दौर ऐसा था , जिसमे सबके लिए एक दूसरे के लिए समय होता था।   


अब शायद   "आण- काथ " की जगह टीवी और मोबाइल ने ले लिया है और अँगीठी जलनी अब बंद सी हो गयी है और परिवार वालो के पास भी अब वक्त थोड़ा कम हो चला है।  कुछ परम्पराएं हमेशा जीवित रहनी चाहिए और शायद ये परम्परा उन्ही में से एक थी।  

Tuesday 18 December 2018

घर के प्रति प्रेम, समर्पण और सम्मान का प्रतीक - ऐपण



किसी भी क्षेत्र की लोककला तभी तक जीवित रहती है जब तक लोग उस लोक कला को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग समझे।  यह लोक कलाओ पीढ़ी दर पीढ़ी एक हाथ से दूसरे हाथो में स्थान्तरित होते रहती है।   बिना कोई लिखित नियम के ये लोककलाएं सदियों से पल्लवित और विकसित होते रहती है।   उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में एक लोक कला का सुन्दर रूप होता है - ऐपण।   किसी भी शुभ अवसर पर जब घर की दहलीज में ऐपण से चित्र उभरते है तो ऐसा लगता है जैसे ये कला नहीं , जीवन का हिस्सा है। 

ऐपण शब्द का उद्गम संस्कृत शब्द "अर्पण" से है और यह एक तरह से घर की दहलीज को धन्यवाद कहने का माध्यम भी है जो घरवालों को सुरक्षित और संयमित रखता है । इसमें घरों के आंगन से लेकर मंदिर तक प्राकृतिक रंगों जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। जब गेरुवे रंग के ऊपर इस बिस्वार ( सफ़ेद ) से हाथो से लकीरे खींची जाती है तो ऊ , लक्ष्मी माता के चरण , और भी न जाने परिकल्पनाएं उढ़ेल दी जाती है और बन जाता है - लोक कला का एक विशिष्ट नमूना - ऐपण।  अलग अलग मांगलिक अवसरों पर ऐपण को भी अलग तरह से परिकल्पित किया जाता है।   सधी हुई अंगुलियाँ जब गेरुवे या लाल रंग के ऊपर सफ़ेद रंग की लकीरे खींचती है तो जैसे कला जीवंत हो उठती है।  सीढ़ियों पर भी लकीरे उकेरी जाती है। 

खुशकिस्मती है की एक बार विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी इस लोक कला को फिर से जीवंत करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है और इसके परिणाम भी सुखद आ रहे है।  बाजार में रेडीमेड ऐपण प्रिंट भी आने लगे है मगर गाँवों में आज भी गेरुवे और बिस्वार से बनायीं जाने वाली ऐपण कला जीवित है।   वैसे भी हमारी पहाड़ी संस्कृति में बिना ऐपण के कोई नहीं मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है।   जरुरी है की यह परम्परा जीवित रहे और हमारा कर्तव्य है की हम इस कला और इसकी महत्ता को अपनी आने वाली पीढ़ी तक भी पहुचायें। 

घर की दहलीज पर बना ये ऐपण जैसे बोल उठता है की आओ , जजमानो आप सबका स्वागत है। 

जय देवभूमि , जय उत्तराखंड। 

Image Source - Google 

Friday 14 December 2018

साहस , विश्वास और शौर्य का युद्ध नृत्य है - छोलिया नृत्य





छोलिया नृत्य को स्मरण करते ही पहाड़ो की शादियों की याद आ जाती है जब कुछ छोल्यार हाथो में तलवार और ढाल लिए ढोलक ( दमाऊ ) की ताल पर अद्भुत नृत्य करते है।   जैसा ढोल बजता है , नर्तक  उसी अनुसार अपने शरीर के सब अंगो को हिलाते हुए अपनी भाव भंगिमाओं से देखने वालो को एक अलग ही दुनिया में ले जाते है। 

कहते है ख़स राजाओ के समय से यह नृत्य चला आ रहा है और जनश्रुतियो के अनुसार इस नृत्य शैली के विकसित होने का एक कारण बड़ा प्रचलित है।   उस काल में जब कोई राजा युद्ध जीतकर आया तो वह युद्ध की कहानी अपनी रानियों को सुना रहा था तो रानियां बहुत प्रभावित हुई और उन्होंने भी युद्ध देखने की इच्छा जताई मगर सामाजिक बंधनो और सुरक्षा का हवाला देकर राजा ने उनकी इच्छा को अस्वीकार कर दिया मगर युद्ध क्षेत्र में क्या होता है , वो प्रतीकात्मक तौर पर अपनी रानियों को दिखाने के लिए उसने राजदरबार में ही युद्ध क्षेत्र को रचने का निर्णय लिया और दो गुट  बनाकर उन्हें सैनिको जैसे कपडे और तलवार , ढाल दिए और दमाऊ की आवाज पर उन्हें अभिनीत करने का आदेश दिया।   यह नृत्य  राजदरबारियों और रानियों को बहुत पसंद आया और फिर इसका आयोजन हर साल होने लगा।   कालान्तर में यह नृत्य कुमाऊँ क्षेत्र में जन नृत्य बन गया  और फिर धीरे धीरे शादियों में भी किया जाने लगा। 

यह एक तलवार नृत्य है, जो प्रमुखतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। यह विशेष रूप से कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में लोकप्रिय है।

इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसे संगीत की धुन पर क्रमबद्ध तरीके से तलवार व ढाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नर्तकियों के साथ नकली लड़ाई जैसा प्रतीत होता है। वे अपने साथ त्रिकोणीय लाल झंडा (निसाण) भी रखते हैं। नृत्य के समय नर्तकों के मुख पर प्रमुखतः उग्र भाव रहते हैं, जो युद्ध में जा रहे सैनिकों जैसे लगते हैं।

इसके अतिरिक्त छोलिया नृत्य का धार्मिक महत्व भी है। इस कला का प्रयोग अधिकतर राजपूत समुदाय की शादी के जुलूसों में होता है। छलिया को शुभ माना जाता है तथा यह भी धारणा है की यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से बारातियों को सुरक्षा प्रदान करता है।

छोलिया नृत्य में कुमाऊं के परंपरागत वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें तुरी, नागफनी और रणसिंह प्रमुख हैं।
नर्तक पारंपरिक कुमाउँनी पोशाक पहनते  हैं, जिसमें सफेद चूड़ीदार पायजामा, सिर पर टांका, रंगीला चोला तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट शामिल हैं। तलवार और पीतल की ढालों से सुसज्जित उनकी यह पोशाक दिखने में कुमाऊं के प्राचीन योद्धाओं के सामान होती है। 


अब आमतौर पर यह नृत्य रंगमंच पर या यदाकदा ही किसी शादी में देखने को मिलता है।  राज्य सरकार को इस नृत्य के सरंक्षण के उपाय सुनिश्चित करने चाहिए ताकि सदियों से चली आ रही यह नृत्य विधा विलुप्त न हो जाये।  

Friday 7 December 2018

बुराँश का फूल



अप्रैल और मई में पहाड़ो में फल -फूल अपने शबाब पर होते है।   इन्ही फल फूलो में अगर आप पहाड़ो के यात्रा पर निकले हो तो सड़क किनारे और जंगलो के बीच किसी झाड़ी नुमा पेड़ पर सूर्ख लाल रंग के बड़े से लाल फूलो का दीदार मन को प्रसन्न कर देता है और आपका मन उस उस फूल को पाने को लालायित हो उठता है।   उस फूल का नाम है - बुराँश।  अपने बड़ी बड़ी पंखुड़ियों के बीच इसके बीज भी समेटे यह फूल अंग्रेजी में रोडोडेंड्रोन कहलाता है।   असल में रोडोडेंड्रोन एक ग्रीक शब्द है जिसमे रोडो मतलब फूल होता है और डेंड्रॉन का मतलब - वृक्ष या पेड़ होता है।    बुरांश का पेड़ उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है और नेपाल में इसके फूल को राष्ट्रीय फूल का दर्जा प्राप्त है।   बुरांश आमतौर पर तीन रंगो में पाया जाता है - लाल , सफ़ेद और गुलाबी।   पहाड़ो में आमतौर पर लाल बुराँश ही खिलता है।  इस फूल की सबसे खास बात यह है की इसमें सुगंध नाम मात्र की होती है। 

उस  समय आपको बहुत सी जगह " बुराँश के फूल " का जूस , जैम और जैली  खरीदने के इश्तेहार भी दिख जाते है।   बुरांश के फूलो का आयुर्वेदिक महत्व है।   यह लीवर , किडनी और हृदय सम्बन्धी रोगो के उपचार में काम आता है।  अगर आपको साबुत फूल भी मिल जाए तो इसकी पंखुड़ियों को धोकर आप सीधे भी खा सकते है।  इसकी पंखुड़ियाँ मीठी होती है और बहुत सारा रस लिए होती है।  बुरांश हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत भी बनाया जाता है। 

पहाड़ी लोक जीवन में इस फूल का बड़ा महत्व है।   यह यौवन  और प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता है।   लोकगीतों में भी इस फूल की महिमा वर्णित है।  इसकी  गिरती पंखुड़ियों को विरह के रूप में भी गीतकारो और कवियों ने दर्शाया है।  

फोटो सौजन्य - गूगल 

Saturday 1 December 2018

“बेड़ू “



हिमालयन वाइल्ड फिग के नाम से पहचाना जाने वाला यह " बेड़ू " वही जंगली फल है जिसका जिक्र कुमाउँनी सदाबाहर गीत " बेड़ू पाको बारमासा " में हुआ है।  यह फल और पौधा वानस्पतिक जगत में " फाइकस पालमारा" के नाम से वर्गीकृत है।  यह उत्तराखंड के हर क्षेत्र में अपने आप उगने वाला फल दार पेड़ हैं। लोग इसके फलों को चाव से खाते हैं , लेकिन इसकी खेती नहीं की जाती है ।  तिमला और बेड़ू एक ही कुल के फल है। 

दिसंबर-जनवरी में गिरने वाली इसकी पत्तियां अप्रैल-मई तक निकल आती है। इसके फल लट्टू के आकार के होते हैं। प्रारंभिक अवस्था में यह हरा रंग लिए होते हैं। बाद में पक जाने पर यह जामुनी व बैंगनी रंग के हो जाते है। पके हुए फलों का स्वाद लाजवाब होता है। जब यह पूरा बैगनी हो जाये तो समझ लीजिये - अब यह खाने के लिए तैयार है।   जब आप इस फल को पेड़ से तोड़ते है तो इसके बाहरी छिलके में एक कसैलापन होता है।  आप इस फल को तोड़कर पांच या दस मिनट पानी में भिगो दीजिये और फिर इसको खाइये या इसका महीन छिलका उतारिये और इसे मुँह में रखिये , यह अपने में अधिकतर जूसी पल्प लिए होता है तो तुरंत घुल जाता है और इसके छोटे छोटे बीज ही आपको बेड़ू खाने का स्वाद देते है। जूसी पल्प होने के कारण अब इस फल से जैम , स्क्वैश और जेली भी बनाई जाने लगी है।  पर्यावरण संरक्षण के लिए लाभकारी इस पेड़ की पत्तियां चौड़ी व खुरदरी होती हैं। इसकी पत्तियां काफी पौष्टिक होती हैं, जिसे गाय, भैंस, भेड़ व बकरियां बड़े की चाव से खाते हैं। इसके कच्चे फलों से सब्जी भी तैयार की जाती है, जो काफी स्वादिष्ट होती है।  

क्यों खास है बेड़ू ?

अगर आपको पेट सम्बन्धित कोई रोग या विकार है तो बेड़ू फिर किसी चमत्कार से कम नहीं है।  आयुर्वेद में बेडु के फल का गुदा (Pulp) कब्ज, फेफड़ो के विकार तथा मूत्राशय रोग विकार के निवारण में प्रयुक्त किया जाता है। बेडू के फल में सर्वाधिक मात्रा आर्गेनिक मैटर होने के साथ-साथ इसमें बेहतर ऑक्सीडेंट गुण भी पाये जाते हैं, जिसकी वजह से बेडू को कई बिमारियों जैसे - तंत्रिका तंत्र विकार तथा हेप्टिक बिमारियों के निवारण में भी प्रयुक्त किया जाता है।  बेड़ू  का प्रयोग विभिन्न बीमारियों के इलाज में जठरांत्र विकार ,  हाइपोग्लाइसेमिया, ट्यूमर, अल्सर, मधुमेह, हाइपरलिपिडेमिया और फंगल संक्रमण को रोकने के लिए किया जाता है। 

यह उत्तराखण्ड में बेडू, फेरू, खेमरी, आन्ध्र प्रदेश में मनमेजदी, गुजरात मे पिपरी, हिमाचल प्रदेश में फंगरा, खासरा, फागो आदि नामों से जाना जाता है।

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...