बड़े छोटे सब उन्हें चनर दा ही कहते थे। चाय की दूकान थी छोटी सी। बगल में चक्की भी थी और एक परचून की दूकान भी। मजमा लगा रहता था। चनर दा के चूल्हे में हमेशा एक केतली में पानी उबलता रहता था। छोटी वाली केतली में चाय हमेशा तैयार। चनर दा का व्यवहार चुम्बक था , एक बार उनकी चाय पीकर उनके साथ थोड़ा सा फसक हो जाये तो फिर वह हर बार चनर दा की दूकान में ही चाय पीने आता था। चाय में भले ही चीनी कम हो या चायपत्ती , उनकी संगत में जादू था। बूढ़े हो या जवान , पुरुष हो या महिला - चाय के साथ चनर दा की दुकान में ऐसे हँसी के फव्वारे छूटते थे की हर कोई खींचा चला आता था। गाँव के लोगो की ऐसी ऐसी कहानियां सुनाते थे , की हर कोई लोट पोट हो जाता था। खुद का मजाक भी उड़ाते थे की फिल्मो में चला गया होता तो असरानी और कादरखान तेल बेच रहे होते।
दिन में वो आलू के गुटके बनाते थे , सिलबटे में मसाले पीसते थे और फिर धुआँर मार के आलू के गुटके बनते थे। स्कूल से आते हुए जब उस दूकान से गुजरते थे , नथुनों में ऐसी खुसबू घुसती थी की एक प्लेट आलू के गुटके खाकर ही संतोष मिलता था। साथ में चनर दा ऐसी चुहलबाजी करते थे की स्कूल की थकान वही मिट जाती थी। चनर दा को गाँव -गंडाव के गजब किस्से याद थे। गेहूं पिसवाने आयी औरतो भले ही उनकी बहु / बेटियों के बराबर होती थी , मगर वो थोड़ा सा उन्हें भी छेड़ देते थे , मगर उस छेड़छाड़ में ओछापन नहीं होता था। सुबह से शाम तक मजमा लगा रहता था चनर दा की दूकान में। किसी के पास पैसे नहीं होते थे , तो उसे भी खिलाने की जबरदस्ती करते थे और कहते थे - खा ले , तेरे बाप से मैं अपने आप पैसे ले लूँगा। कितनी बार ऐसे चाय और आलू के गुटके हमने भी खाये और चनर दा ने कभी भी पिछले पैसो के बारे में नहीं पूछा। कई बार तो अपना दिन का अपना भात - दाल भी वह स्कूल से आते बच्चो को खिला देते थे और कहते थे -" क़र्ज़ देना है तुम्हारे बाप का , इसी में उतार दूंगा। "
इतने मिलनसार और हँसमुख थे की बच्चा बच्चा उन्हें जानता था और सबके लिए वो "चनर दा " थे। कभी कभार तो उनकी पत्नी भी जब गेहूं पिसवाने चक्की आती थी , वह भी कहती थी " चाय पिलाओ चनर दा " और पूरे माहौल में हँसी घुल जाती थी।
कितना सरल और सहज था वो जीवन , बिना किसी लाग लपेट के। गाँव में सारे अपने ही लगते थे। चनर दा गुजर गए तो उनका वह चाय का ठीया भी उनके साथ ही चला गया। आज जब कभी उस रास्ते से जाने होता है तो उनके ठीये पर उगी घास और गिरे पड़े पत्थर उनकी बरबस याद दिला देते है। उनकी चाय और आलू के गुटको का स्वाद आज भी ताजा है।
दिन में वो आलू के गुटके बनाते थे , सिलबटे में मसाले पीसते थे और फिर धुआँर मार के आलू के गुटके बनते थे। स्कूल से आते हुए जब उस दूकान से गुजरते थे , नथुनों में ऐसी खुसबू घुसती थी की एक प्लेट आलू के गुटके खाकर ही संतोष मिलता था। साथ में चनर दा ऐसी चुहलबाजी करते थे की स्कूल की थकान वही मिट जाती थी। चनर दा को गाँव -गंडाव के गजब किस्से याद थे। गेहूं पिसवाने आयी औरतो भले ही उनकी बहु / बेटियों के बराबर होती थी , मगर वो थोड़ा सा उन्हें भी छेड़ देते थे , मगर उस छेड़छाड़ में ओछापन नहीं होता था। सुबह से शाम तक मजमा लगा रहता था चनर दा की दूकान में। किसी के पास पैसे नहीं होते थे , तो उसे भी खिलाने की जबरदस्ती करते थे और कहते थे - खा ले , तेरे बाप से मैं अपने आप पैसे ले लूँगा। कितनी बार ऐसे चाय और आलू के गुटके हमने भी खाये और चनर दा ने कभी भी पिछले पैसो के बारे में नहीं पूछा। कई बार तो अपना दिन का अपना भात - दाल भी वह स्कूल से आते बच्चो को खिला देते थे और कहते थे -" क़र्ज़ देना है तुम्हारे बाप का , इसी में उतार दूंगा। "
इतने मिलनसार और हँसमुख थे की बच्चा बच्चा उन्हें जानता था और सबके लिए वो "चनर दा " थे। कभी कभार तो उनकी पत्नी भी जब गेहूं पिसवाने चक्की आती थी , वह भी कहती थी " चाय पिलाओ चनर दा " और पूरे माहौल में हँसी घुल जाती थी।
कितना सरल और सहज था वो जीवन , बिना किसी लाग लपेट के। गाँव में सारे अपने ही लगते थे। चनर दा गुजर गए तो उनका वह चाय का ठीया भी उनके साथ ही चला गया। आज जब कभी उस रास्ते से जाने होता है तो उनके ठीये पर उगी घास और गिरे पड़े पत्थर उनकी बरबस याद दिला देते है। उनकी चाय और आलू के गुटको का स्वाद आज भी ताजा है।
बहुत ही अच्छी कहानी है सर जी।
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