Tuesday 27 November 2018

किल्मोड़ा : एक असरदार पहाड़ी औषधि


जो पहाड़ो में रहते है या पहाड़ो से तालुक रखते है उन्हें तो किल्मोड़ा के बारे में पता ही होगा।    मई -जून  में जब आप पहाड़ो में जाते है तो सड़को किनारे एक कांटेनुमा झाड़ी में बैंगनी रंग और हरे रंग के छोटे छोटे फल लटके दिखाए दे जाते है।   एक ही डाली में हजारो छोटे छोटे लटकते ये फल या तो बन्दर खा जाते है या फिर छोटे छोटे बच्चे स्कूल से आते जाते खाते है।  अप्रैल में इसमें पीले फूल खिलने शुरू हो जाते है जो फिर धीरे धीरे फल का आकार ले लेते है।   

किल्मोड़ा अपने आप में एक अद्भुत औषिधीय पौधा या झाड़ है जिसका जिक्र आयुर्वेद में तक है।  इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। हरे रंग की  प्रजाति को दारू हल्दी भी कहा जाता है। यह आपको पहाड़ो में अमूमन 1500 से 2000 तक की समंदर तल से ऊँचाई वाले भाग में मिलता है।  किल्मोड़ा की जड़, तना, पत्ती से लेकर फल तक का इस्तेमाल होता है। मधुमेह में किल्मोड़ा की जड़ बेहद कारगर होती है। इसके अलावा बुखार, पीलिया, शुगर, नेत्र आदि रोगों के इलाज में भी ये फायदेमंद है। होम्योपैथी में बरबरिस नाम से दवा बनाई जाती है।

इस पौधे में एंटी डायबिटिक, एंटी इंफ्लेमेटरी, एंटी ट्यूमर, एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल तत्व पाए जाते हैं। डायबिटीज के इलाज में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है

किलमोड़े के फल में पाए जाने वाले एंटी बैक्टीरियल तत्व शरीर को कई बींमारियों से लड़ने में मदद देते हैं। दाद, खाज, फोड़े, फुंसी का इलाज तो इसकी पत्तियों में ही है। डॉक्टर्स कहते हैं कि अगर आप दिनभर में करीब 5 से 10 किलमोड़े के फल खाते रहें, तो शुगर के लेवल को बहुत ही जल्दी कंट्रोल किया जा सकता है।
गढ़वाल में इसे किनगोड़ा कहा जाता है। इसके साथ किलमोड़े के तेल से जो दवाएं तैयार हो रही हैं, उनका इस्तेमाल शुगर, बीपी, वजन कम करने, अवसाद, दिल की बीमारियों की रोक-थाम करने में किया जा रहा है।  इसकी जड़ो को खोदकर या लकड़ी को छोटे छोटे टुकड़े बनाकर रात में पानी में भिगोकर फिर उस पानी को पीने से शुगर में अत्यधिक लाभ होता है। 

तो अगली बार जब भी आप पहाड़ जाये तो इस किलमोड़े को औषधीय झाड़ के रूप में ही देखिएगा और अगर फल खिले हो तो तोड़ कर जरूर अपने परिजनों तक पहुँचायेगा। यह घरो के आस पास नहीं उगाया जाता क्यूंकि इसमें कांटे होते है।   यह अपने आप जंगलो में , सड़क के किनारे उगता है। और मुफ्त में बहुतायत में उपलब्ध रहता है।    दुखद बात ये है की इसकी झाड़े अब धीरे धीरे ख़त्म हो रही है और उपेक्षा के अभाव में कही ये प्रकृति द्वारा प्रदत औषिधीय पौधा कहीं गायब न हो जाये। 

Saturday 24 November 2018

बहुत गुणकारी है पहाड़ी गहत की दाल, जरूर खाइये।



पहाड़ो में सर्दियों के दिनों में प्रायः एक दाल का महत्वपूर्ण स्थान है , वह है गहत।  सर्दियों में इस दाल का सेवन पहाड़ो में सेहतमंद और फायदेमंद है क्यूंकि इस दाल की तासीर गर्म होती है और इस दाल में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है।   सर्दी के मौसम में नवंबर से फरवरी माह तक इस दाल का उपयोग बहुतायत में किया जाता है। गहत का  वानस्पतिक नाम है " डौली कॉस बाईफ्लोरस” और इसे हिंदी में कुल्थी नाम से भी जाना जाता है। 

यह दाल खरीफ की फसल में शुमार है और आमतौर पर पहाड़ो में उगाई जाने वाली दाल का रंग भूरा होता है ।  कहा जाता है की डायनामाइट का इस्तेमाल करने से पहले चट्टानों को तोड़ने के लिए इस दाल का उपयोग किया जाता था।  इसके लिए बड़ी-बड़ी चट्टानों में ओखली नुमा छेद बनाकर उसे गर्म किया जाता था और गर्म होने पर छेद में गहत का तेज गर्म पानी डाला जाता था। जिससे चट्टान चटक जाती थी।

गहत की दाल का रस गुर्दे की पथरी में काफी लाभकारी है। इसके रस का लगातार कई माह तक सेवन करने से स्टोन धीरे-धीरे गल जाती है। आयुर्वेद के अनुसार गहत  की दाल में विटामिन 'ए' पाया जाता है, यह शरीर में विटामिन 'ए' की पूर्ति कर पथरी को रोकने में मदद करता है। गहत  की दाल के सेवन से पथरी टूटकर या धुलकर छोटी हो जाती है, जिससे पथरी सरलता से मूत्राशय में जाकर यूरिन के रास्ते से बाहर आ जाती है। मूत्रवर्धक गुण होने के कारण इसके सेवन से यूरिन की मात्रा और गति बढ़ जाती है, जिससे रुके हुए पथरी के कण पर दबाव ज्यादा पड़ता है और दबाव ज्‍यादा पड़ने के कारण वह नीचे की तरफ खिसक कर बाहर आ जाती है।

उत्तराखंड में 12,319 हेक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती की जाती है।  अल्मोड़ा , टिहरी , नैनीताल , पिथौरागढ़ , बागेश्वर आदि जिलों में यह बहुतायत में उगाई जाती है।  तो खाइये इन सर्दियों में - गहत की दाल।  

Wednesday 21 November 2018

ह्यून एगो



ह्यून एगो पहाड़ो मी , 
राति ब्याव जाड़ , 
हाथ खुटा अकड़ गी ,
जल्दी जलाओ आग।  

रजे -कंबल निकालो अब , 
ऊनी कपड़ोल ढको तन , 
बूढ़ बाड़िया ध्यान धरो , 
"बाई बात " नि हो केकू दर्द।  

नानतिन अब नानतिनेन भाय , 
उनको केहू जाड़ , 
धिरक धिरक बेर इत्था उत्था , 
शरीर कर रूनी आपुण गर्म।  

घाम मी बैठ बेर , 
फसक मारणि  दिन ,  
ह्यून एगो पहाड़ो मी , 
बनेन बुननि दिन।  

भौते ठंड हूँ हो पहाड़ो मी , 
करिया आपुण आपुण जतन , 
प्रार्थना छू सब दाज्युओं ,
कम पिया हो रम।  



Friday 16 November 2018

उत्तराखंडेक पुकार



होई अब मी बालिग हेगेयू , 
के कू दाज्यू , 
भरभरान जवानी मी 
लूरि बिराऊ जैस हेगेयू।  

कसी म्यर जन्म हो , 
सब भूली गई  , 
कदु अरमान छी , 
सब हरेगी।  

खूब दैल -फ़ैल हेलि , 
सब राजी ख़ुशी रौल , 
कदु स्वेण छी ,
सबु मी पाणी फेरिगो।  

आइले बखत छू , 
आपुणेक घरेक बात छू , 
अठारहेक है रैयू आई , 
नई शुरुवात करणी समय छू।  

जाग जाओ रै सब , 
आईले नि जागला 
फिर काम तमाम छू ,
बचे लिहो म्यूकि , 
नते, खाली नामेनाम छू।  

Image Source - Google 

Tuesday 13 November 2018

सुना तो होगा ही आपने - "बेड़ू पाको बारमासा" तो जानिये इस गीत का इतिहास ?



कुमाउँनी गीतो की जब भी बात होती है तब सबसे पहले जो गीत सबकी जुबान में चढ़ता है , वह है कुमाउँनी आँचल का सदाबहार गीत - "बेड़ू पाको बारमासा" ।
इस प्रसिद्द गीत के गीतकार थे - श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह।  इस गीत को राग दुर्गा पर आधारित बनाकर श्री मोहन उप्रेती और श्री ब्रजमोहन शाह जी द्वारा सर्वप्रथम 1952 में राजकीय इण्टर कॉलेज , नैनीताल में गाया गया।  मगर जब यह गीत दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में बजाया गया तो कुमाउँनी भाषा का यह गीत अमर हो गया।  बताते है यह हमारे प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी के पसंदीदा गीतों में शुमार था।   तीन मूर्ति सभागार में इस गीत की रिकॉर्डिंग सब मेहमानो को स्मारिका के तौर पर भी दी गयी थी।  बाद में कुमाउँनी गीतों के प्रसिद्ध गायक श्री गोपाल बाबू गोस्वामी ने जब अपनी खनकती आवाज में इसे गाया और रिकॉर्ड किया तो यह जन -जन का पसदींदा गीत बन गया।   शायद ही कोई कुमाउँनी होगा , जिसने यह गीत न सुना हो।   हर बारात में जब बीनबाजे और रामढोल पर यह गीत बजता है तो पैर अपने आप थिरकने लग जाते है। 

बेडु पाको बारोमासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

भुण भुण दीन आयो -२ नरण बुझ तेरी मैत मेरी छैला -२
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

आप खानी पान  सुपारी -२, नरण मैं को दिनी  बीडी मेरी छैला -२
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

अल्मोडा की नंदा देवी, नरण फुल चढूनी पात मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

त्यार खुटा मा काना बूड़ो , नरणा मेरी खुटी पीडा मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २

अल्मोडा को लाल  बजार, नरणा लाल मटा की सीढी मेरी छैला
बेडु पाको बारोमासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला - २


तो गुनगुनाना मत भूलियेगा -" बेडु पाको बारोमासा"।

Sunday 11 November 2018

पहाड़ी जायका : दिन के भोजन की स्पेशल थाली




याद आया आपको पहाड़ और वो स्वाद ?

पहाड़ो में खाने का अपना रिवाज है।   अमूमन दिन के समय भात ( चावल ) के साथ दाल या कोई पहाड़ी व्यंजन बनाया जाता है और रात को रोटी के साथ सब्जी बनायीं जाती है। 

इस फोटो को देखकर अपने पहाड़ो से दूर रहने वालो को जरूर अपने गाँव की याद आएगी और याद आएगा वो स्वाद। 

दिन के खाने में अक्सर चावल के साथ मौसमी दाल या सब्जी बनायीं जाती है।   इस पहाड़ी थाली में भट्ट का जोउ , झोई ( कढ़ी) , भात , हरी सब्जी की टपकी और  भाँग की चटनी है।   यह पहाड़ो की शाकाहारी विशेष थाली है जो दिन में बड़े चाव से खायी जाती है। 
पहाड़ी झोई , दही को मथने के बाद बची छाछ से बनाई जाती है और इसमें पकौड़े नहीं डाले जाते है।   थोड़ा सा खटास लिए यह झोई जब मुँह में जाती है तो स्वाद कीर्तन करने लगता है।   हरी सब्जी की टपकी,  भात और भट के जोऊ के साथ स्वाद का सामंजस्य बिठाने का काम करती है।  चटनी वैल्यू एडेड सर्विस है जो पूरे खाने में तड़के सा काम करती है। 

जब भी पहाड़ जाइये तो इस विशेष थाली का लुत्फ़ उठाने से खुद को रोकियेगा मत।   बस खा जाइये , तन मन सब तृप्त हो जायेगा। 


फोटो आभार - श्री प्रकाश कपकोटी , कपकोट 

Saturday 3 November 2018

गौव - गाड़ेक हाल समाचार


बता धी भुला , म्यार पहाडेक हाल,
म्यूकि नि जाई, हेगी कदु साल। 

बाट -बखाई उस्से छीना ,
वै छो ऊ गोल्ज्यू थान।

रमु कक्क जिन्द छीना ,
धार मी आईले उछो चिट घाम। 

पाणी धार बाँजेक बुझाणी हुनोल ,
काश छीन घट्ट -बिरबान। 

दाज्यू , बदल गो हो हमौर पहाड़ ,
बाँझ पड़ गी गौव-गाड़। 

तुमार घराक बल्ली सड़ गी ,
गोठ भेतर चौफान हेगी । 

खेतीबाणी सब बाँझ पड़ी गे ,
वानरों हर जाग़ धीरधिराट हेगो ।

गोल्ज्यू थान मी दूब जामिगो ,
बाँझ बुझांणी धार सूख गो। 

रमु कक्क परलोक सिधार गी ,
चैलाक उनौर झकोड़ हेगो। 

बकाई अब गौव मी केय नि रेगो ,
खालि अब नामेनाम  रेगो। 

दाज्यू  , बाँझ पड़ गी हमार गौ-गाड़ सब ,
पत् न केक हँकार लागि गो।

फोटो साभार - गूगल 

Thursday 1 November 2018

कुमाउँनी गीतों के किशोर कुमार - गोपाल बाबू गोस्वामी



याद है आपको - "घुघुती न बासा", "कैलै बजै मुरूली", "हाये तेरी रुमाला", "भुर भुरु उज्याव हैगो" , "अलबेरे बिखौती , म्येरि दुर्गा हरेगे ","हिमाला को ऊँचो डाना प्यारो मेरो गाँव", "छोड़ दे मेरो हाथा में ब्रह्मचारी छों","छविलो गढ़वाल मेरो रंगीलो कुमाऊं",- तो आप उस महान कुमाउनी गायक गोपाल बाबू गोस्वामी को भी जानते होंगे ?   कुमाउनी गीतों के इस किशोर कुमार के गीतों का एक समय पूरे कुमाऊं मंडल  में गायकी में राज था। 

" न रो चेली न रो मेरी लाल, जा चेली जा सरास " हर बेटी के विदाई के वक्त जब बजता था , तो घर वालो के साथ बारातियो की आँखों में भी आंसू आ जाते थे। 
"हरु -हीत " और "राजुला -मालूशाही " लोककथाओं को संगीतबद्ध करके जन -जन तक पहुंचाने का काम गोपाल बाबू गोस्वामी ने किया।  उनके ऑडियो कैसेट एक वक्त सबके घरो में उपलब्ध हुआ करते थे। 

अल्मोड़ा के चौखुटियाँ तहसील के चाँदीखेत नामक गाँव से 2 फरवरी ,1941 से शुरू हुआ उनका सफर कई उतार चढ़ाव से गुजरते हुए 26 नवम्बर 1996 को समाप्त हुआ।    इस सफर में आकाशवाणी , हिरदा कैसेट  के माध्यम से उनके गीत और आवाज कुमाऊं के अंचलो से होते हुए हर पहाड़ी के मन और मस्तिष्क में घर कर गयी।  12 साल की उम्र से उन्होंने जो गीत लिखने शुरू किये तो अपने जीवन काल में उन्होंने लगभग 500 गीत लिख डाले।

उनकी आवाज में एक पहाड़ी खनक थी , ऐसा लगता था जैसे दूर पहाड़ो से कोई आपको बरबस पुकार रहा हो और आप उस आवाज को सुनने को मचल उठे हो।   उन्होंने पहाड़ के हर रंग को अपने गीतों में ढाला।   पहाड़ो की परम्पराएं , रीति रिवाज , सामाजिक चेतना , सुख-दुःख - सभी को अपने गीतों में पिरोया और फिर अपनी मधुर आवाज से ऐसे संगीतबद्ध किया की - वो हर पहाड़ी को अपनी आवाज लगी। 

"कैले बजे मुरली " में उन्होंने विरह गीत पेश किया तो " अलबेरे बिखौती , म्येरि दुर्गा हरेगे " में छेड़छाड़ प्रस्तुत किया।  उनके गाये गीतों में पहाड़ छलकता था , पहाड़ के सुख दुःख बयां होते थे।  मैं भाग्यशालो हूँ की मैंने गोपाल बाबू गोस्वामी के उस दौर को जीया है और उनके गए गीतों को ही सुनकर बढ़ा हुआ।  आज भी उनके गाये  गीत सुनता हूँ तो कही भी रहूँ , फिर से ऐसा लगता है - की पहाड़ो में जी रहा हूँ। ठंडी ठंडी हवा के झोंके , वो उजला आसमान और एक खनकती आवाज - जो बरबस याद दिलाती है - "हिमाला को ऊँचो डाना, प्यारो मेरो गाँव" । 
जरूर सुनियेगा - पहाड़ो की खनकती इस आवाज को।


फोटो साभार - गूगल 

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...