Thursday 28 January 2021

कुमाउँनी ग़ज़ल

 

 

ह्यू पड़ो डाना डाना ऊजाव पट हेगे यौ जुन्याली रात। 

स्वामी म्यरा परदेसा कहा कू सूवा अब दिलेक बात ।।

 

बूढ़ी ईजा रोज पूछू काश छीन वीक च्यलाक हाल।

नानतिन रोज़ बाट देखनि कब आल पूछनी बार बार ।।

 

पहाड़ जीवन कठोर जस डासी डुंग धरि रु गाड़।

दिन तो काटी जानी पराण उदेखि जस पुसेक रात ।।

 

तुम्हेर दिगे बितायी पल भोते ऊनि याद।

जाड़ कुठरी जा जस ढकी रयी कमोय सात।।

Saturday 23 January 2021

कुमाउँनी शेर

 -1-

खुट उदेगे फैलूंण चैनी ज्यदु चद्दर छू।  

नंगेड़े खुटो को ठण्ड बहुत लागू। 

-2-

मैस पाख मी चढ़नी तो आपुण धुरी मी नि चड़न चे। 

चड़न तो आसान हूँ हुलेरण फगे भोते दिक्कत है जे।  

-3-

पहाड़ जय्दू भाल देखनि भतेर उदुके दर्द छिपे रूनी। 

आपुण पीड़ दर्द ऊ फिर गाड़ गधेरो कुणी बतनुहि।।

-4

जो पहाड़ ज्यदु ठुल हूँ विक गहराई ले उदेगु हूँ। 

आसमां हू बात करछो पाताल तक टिकी हूँ।। 

-5-

नि छेड़ ला -सीध साध हुनि पहाड़ी शेणी मैस। 

छेड़ी गया फिर भैंस की तीस वाई उनेर रीस।  


Thursday 14 January 2021

कुली बेगार प्रथा और उत्तरायणी - 14 जनवरी 1921

 


उतरैणी कौतिक , सरयू और गोमती  का बगड़ ,

लिया पहाड़ ने एक प्रण - लेकर हाथ में सरयू का जल ,

ख़त्म करेंगे अब गुलामी , चाहे हो जाये अब रण ,

ठगना बंद करेंगे अँग्रेजो का , चालीस हजार आवाजे उठी एक संग ,

बहा दिए रजिस्टर , किया घोर शंखनाद

बद्री दत्त पांडेय जी ने भरी एक हुँकार ,

बहा ले गयी सरयू -ख़त्म समझो कुली बेगार ,

हतप्रभ "डायबल" चौंक उठा , घमंड उसका चूर हुआ

कुमाऊँ के बागेश्वर में "रक्तहीन क्रांति " का पहला आगाज हुआ।

 

नमन , अभिनन्दन और वंदन - बागनाथ जी ,

गोमती के तट को , सरयू के जल को ,

कुमाऊं को , गढ़वाल को ,

उतरैणी कौतिक को , उस बगड़ को ,

शामिल हरेक जन को ,

सौ साल बीत गए , मगर , मत भूलिए क्रांति के उस पल को ,

मनाते रहिये उतरैणी कौतिक को। 

 

Friday 8 January 2021

पहाड़ो की एक शाम

सूरज उत्तर रहा धीरे धीरे , 

जाने को तैयार उस पहाड़ से नीचे , 

गाय बैल सब वापस लौट रहे , 

"खट्ट खट्ट" उनके खुर बोले , 

हाँकता ला रहा मुन्ना , 

एक गाय की पूँछ मरोड़े , 

एक बुढ़ी अम्मा धारे में , 

पानी की गागर भरे , 

घर की बहू , 

क्या पकाना है सोचे , 

कुछ लोग लौट रहे दुकानों से , 

जैसे कुछ बड़ा काम करके लौटे , 

छिलुके कुछ इक्कट्ठा कर , 

घर की बड़ी बिटिया चूल्हा झोंके ,

शिवालय का घंटा बजे , 

घस्यारान के गठव बंधे , 

ऊँचे डानो में अब घाम बचा , 

दूर हिमालय अपना रंग बदले, 

थके हारे सब पशु , पक्षी , नर नारी 

अपने अपने घर लौटे , 

बस थोड़ी देर में अब ये दिन , 

रात को हवाले कर पहाड़ो में ढले।     

होती होंगी शाम जवाँ कही , रंगीन रातें कहीं , 

पहाड़ो में शाम उदास और राते खामोश ही होती है।   


जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...