Wednesday, 3 October 2018

पहाड़ो में रामलीला

पहाड़ो की रामलीला का अपना ही एक रंग है।  एक दो महीने के तालीमा के बाद पात्र रामायण के किरदारों में ऐसे घुस जाते है उन्हें बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है।   असोज का महीना पहाड़ो में काम धंधे वाला महीना होता है।   धान कटाई , मडुआ चुटाई , घास के मांग , झुंगर की बालियां - सब लोग व्यस्त रहते है और इसके बाद के नवरात्रो में मनोरंजन के लिए रामलीला मंचन।   शताब्दियों से पहाड़ो में मनोरंजन के साथ एक सामूहिक आयोजन - रामलीला साक्षी रहा है। 

टीवी , मोबाइल फ़ोन और मनोरंजन के तमाम साधनो ने भले ही इसकी चमक फीकी कर दी हो मगर अब भी बहुत सी जगह ये मंचन बदस्तूर जारी है।   सखियों का गायन और जोकर की मसखरी के साथ शुरू होने वाला यह मंचन हर साल जहाँ कुछ कलाकारों को आत्मसंतुष्टि दे जाता है वही रामायण फिर से राम की कहानी को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने में सहायक होता है।   बचपन में अपने घर से २ किलोमीटर दूर रामलीला देखने जाना आज भी याद है।  टोर्च कुछ ही लोगो के पास होता था तो चीड़ के लीसे से मशाल बनाया जाता था और फिर उस मशाल की रौशनी में रामलीला देखने जाना बड़ा रोमांचक होता था। 

पात्रो को उनके अभिनय पर इनाम देने वालो की कमी नहीं होती थी।  एक बुजुर्ग शख्श " रावण " का ऐसा दमदार रोल करते थे की उनका उपनाम ही " रावण " पड़ गया था। 

सूर्पनखा , सुबाहु - मारीच वध , सीता स्वयंवर , खर दूषण वध , लंका दहन , रावण वध के दिन खास तौर पर भीड़ ज्यादा होती थी।  नौ गाँव के बीच बसा वह प्राथमिक विद्यालय का वह मंच उन १० दिनों के लिए रात को गुंजायमान रखता था। 

अच्छी परम्पराओ को सहेज कर चालू रखना उसकी आने वाली पीढ़ी की नैतिक जिम्मेदारी है और ख़ुशी इस बात की है की आज भी पहाड़ो में यह परम्परा जारी है और इसके लिए तमाम वो लोग प्रंशसा के पात्र है जो अभी तक इसको सिद्दत से अपना कर्तव्य मानकर निभा रहे है। 

तो आपकी रामलीला में राम कब कहेंगे - 
" उतारू राज के कपडे , 
बनाऊ वेश मुनियन का।  "

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जोशीमठ

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