घट्ट और नौले कभी हमारे पहाड़ो की संस्कृति के अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे मगर धीरे धीरे आधुनिकीकरण ने ये दोनों चीजों को लील लिया। घट्ट से जुडी बहुत सी यादें आज भी जेहन में ताजा है। वो नदी किनारे का घट्ट जो पानी के तेज बहाव से जब चलता था और दो पाटो से गेहूं जब आटा ( पीसू ) बनता था तो उस आटे की खुशबु आज तक नाक को याद है। कितना सरल जमाना था जब घट्ट की पिसाई के रूप में आटे का एक भाग वही रख दिया जाता था।
नौले भी धीरे धीरे सरंक्षण के अभाव में सूख गए या अब विलुप्त हो गए है। गर्मी के दिनों में ठंडा पानी और ठंड के दिनों में गुनगुना पानी वाला वह प्राकृतिक श्रोत अब नहीं के बराबर है। पहले जब भी गाँव में शादी होकर कोई बहु आती थी तो वह परम्परा के तौर पर नौले तक जरूर जाती थी। नौले पर होने वाली वह फसक अब व्हाट्सप्प में होने लगी है।
पहाड़ की ये छोटी छोटी बातें पहाड़ो को प्रकृति से जोड़े रखती थी।
"भूली गैया हम अब ,
नौव पाणी , घट्टेक पीसू
भूली गैया ऊ मिठास अब ,
बाज पड़ा घट्ट और हराणो पाणी। "
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Ghatt to ab khatm ho gaye
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