Friday 24 August 2018

चनर दा चाह दुकान और आलूक गुटुक

बड़े छोटे सब उन्हें चनर दा ही कहते थे।   चाय की दूकान थी छोटी सी।  बगल में चक्की भी थी और एक परचून की दूकान भी।   मजमा लगा रहता था।  चनर दा   के चूल्हे में हमेशा एक केतली में पानी उबलता रहता था।  छोटी वाली केतली में चाय हमेशा तैयार।  चनर दा का व्यवहार चुम्बक था , एक बार उनकी चाय पीकर उनके साथ थोड़ा सा फसक हो जाये तो फिर वह हर बार चनर दा की दूकान में ही चाय पीने आता था।   चाय में भले ही चीनी कम हो या चायपत्ती , उनकी संगत में जादू था।  बूढ़े हो या जवान , पुरुष हो या महिला - चाय के साथ चनर दा की दुकान में ऐसे हँसी के फव्वारे छूटते थे की हर कोई खींचा चला आता था।  गाँव के लोगो की ऐसी ऐसी कहानियां सुनाते थे , की हर कोई लोट पोट हो जाता था।   खुद का मजाक भी उड़ाते थे की फिल्मो में चला गया होता तो असरानी और कादरखान तेल बेच रहे होते। 

दिन में वो आलू के गुटके बनाते थे , सिलबटे में मसाले पीसते थे और फिर धुआँर मार के आलू के गुटके बनते थे।   स्कूल से आते हुए जब उस दूकान से गुजरते थे , नथुनों में ऐसी खुसबू घुसती थी की एक प्लेट आलू के गुटके खाकर ही संतोष मिलता था।  साथ में चनर दा ऐसी चुहलबाजी करते थे की स्कूल की थकान वही मिट जाती थी।   चनर दा को गाँव -गंडाव के गजब किस्से याद थे।  गेहूं पिसवाने आयी औरतो भले ही उनकी बहु / बेटियों के बराबर होती थी , मगर वो थोड़ा सा उन्हें भी छेड़ देते थे , मगर उस छेड़छाड़ में ओछापन नहीं होता था।   सुबह से शाम तक मजमा लगा रहता था चनर दा की दूकान में।  किसी के पास पैसे नहीं होते थे , तो उसे भी खिलाने की जबरदस्ती करते थे और कहते थे - खा ले , तेरे बाप से मैं अपने आप पैसे ले लूँगा।   कितनी बार ऐसे चाय और आलू के गुटके हमने भी खाये और चनर दा ने कभी भी पिछले पैसो के बारे में नहीं पूछा।  कई बार तो अपना दिन का अपना भात - दाल भी वह स्कूल से आते बच्चो को खिला देते थे और कहते थे -" क़र्ज़ देना है तुम्हारे बाप का , इसी में उतार दूंगा। "

इतने मिलनसार और हँसमुख थे की बच्चा बच्चा उन्हें जानता था और सबके लिए वो "चनर दा " थे।   कभी कभार तो उनकी पत्नी भी जब गेहूं पिसवाने चक्की आती थी , वह भी कहती थी " चाय पिलाओ चनर दा " और पूरे माहौल में हँसी घुल जाती थी। 

कितना सरल और सहज था वो जीवन , बिना किसी लाग लपेट के।   गाँव में सारे अपने ही लगते थे।  चनर दा गुजर गए तो उनका वह चाय का ठीया भी उनके साथ ही चला गया।   आज जब कभी उस रास्ते से जाने होता है तो उनके ठीये पर उगी घास और गिरे पड़े पत्थर उनकी बरबस याद दिला देते है। उनकी चाय और आलू के गुटको का स्वाद आज भी ताजा है। 

Wednesday 22 August 2018

घट्ट और नौले ( यादें पहाड़ो की - भाग दो )


घट्ट और नौले कभी हमारे पहाड़ो की संस्कृति के अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे मगर धीरे धीरे आधुनिकीकरण ने ये दोनों चीजों को लील लिया।   घट्ट से जुडी बहुत सी यादें आज भी जेहन में ताजा है।   वो नदी किनारे का घट्ट जो पानी के तेज बहाव से जब चलता था और दो पाटो से गेहूं जब आटा ( पीसू ) बनता था तो उस आटे की खुशबु आज तक नाक को याद है।  कितना सरल जमाना था जब घट्ट की पिसाई के रूप में आटे का एक भाग वही रख दिया जाता था। 

नौले भी धीरे धीरे सरंक्षण के  अभाव में सूख गए या अब विलुप्त हो गए है।   गर्मी के दिनों में ठंडा पानी और ठंड के दिनों में गुनगुना पानी वाला वह प्राकृतिक श्रोत अब नहीं के बराबर है।   पहले जब भी गाँव में शादी होकर कोई बहु आती थी तो वह परम्परा के तौर पर नौले तक जरूर जाती थी।  नौले पर होने वाली वह फसक अब व्हाट्सप्प में होने लगी है। 

पहाड़ की ये छोटी छोटी बातें पहाड़ो को प्रकृति से जोड़े रखती थी। 

"भूली गैया हम अब ,
 नौव पाणी , घट्टेक पीसू
 भूली गैया ऊ मिठास अब ,
 बाज पड़ा घट्ट और हराणो पाणी। "

जरूर पढिया - म्यर किताब - "मिगमीर सेरिंग और २१ अन्य कहानियाँ " -  https://pothi.com/pothi/book/anand-mehra-migmir-tsering

Thursday 9 August 2018

पाठी , दवात और बाँस की कलम (यादें पहाड़ की - भाग -एक )

हमारी प्राथमिक शिक्षा गजब थी।  रोज़ सुबह एक झोले में कमेट (सफ़ेद चूना पत्थर  ) को घोलकर भरी हुई दवात होती थी , दो दथुले से छिले हुए बाँस की कलमे और एक पाठी ( स्लेट ) होती थी।  पाठी को कोयले से गजब काला करते थे और सुबह सुबह एक किलोमीटर दूर हँसते खेलते अकेले स्कूल पहुँच जाते थे।  रास्ते में कुछ फलो के पेड़ मिलते थे तो चुपके से दो चार म्योह , प्लुम , खुमानी या एक दो फूल्योनं ककड़ी के हमारे झोले में हमेशा पाए जाते थे।   स्कूल पहुंचकर " मास्साब नमस्ते " और " बहनजी नमस्ते " कहकर खुले आँगन में प्रार्थना करते थे और फिर अपनी पाठी , दवात और कलम लेकर बाहर बरामदे में ही कक्षा शुरू हो जाती थी।  पहली पाली  में अ , आ , क , ख सीखते थे और फिर दूसरी पाली में गिनतियाँ या पहाड़े।  इंटरवल में स्कूल के आगे पीछे चक्कर मारते थे और मिटटी को खोद खोद कर एक दूसरे पर मारते थे।   स्कूल ड्रेस के नाम पर एक खाकी पेंट थी और एक आसमानी रंग का बाजु फटा कुर्ता।   जेब हमेशा एक तरफ से लटकी ही मिलती थी। 
मासाब कहते थे - घर जाने से पहले पाठी के दोनों तरफ भरा होना चाहिए।  एक तरफ वर्णमाला और दूसरी तरफ गिनतियाँ।   कक्षा दो तक वही पाठी हमारी शिक्षा का केंद्र थी।  कक्षा तीन से एक दो किताबे और कॉपियां हमारे झोले में आ गयी।  स्कूल में छुट्टी होने से पहले सब बच्चो को इकठ्ठा बैठाया जाता था और फिर पहाड़े सुनाने का दौर शुरू होता था।  जिसको याद नहीं होता था , मासाब का झन्नाटेदार थप्पड़ सीधा गाल पर होता था।   धीरे धीरे घिसटते पीटते कक्षा पाँच तक पहुँच जाते थे और कक्षा पाँच में पहुंचते ही बोर्ड परीक्षा होती थी।  उस बोर्ड परीक्षा का ऐसा खौफ होता था , की नींद उड़ जाती थी।  अम्मा के लिए पढ़ने से ज्यादा जरुरी काम बैल ढूंढ कर लाना या  छिलुके फाड़ के लाना होता था और बुबु के चिलम में कोयले का इंतजाम करना भी हमारा एक जरुरी काम होता था। 
स्कूल से आते हुए एक नदी रास्ते में पड़ती थी , स्कूल की छुट्टी के बाद २०० मीटर दूर से ही कपडे खोल खाल कर उस नदी में डुबकी मार लेते थे।  तीन बजे की छुट्टी में पाँच बजे घर पहुँचते थे।   भूख के मारे बुरा हाल होता था।   मडुवे की रोटी और पिसा हुआ नूण खाकर बैल ढूढ़ने जंगल चले जाते थे।  रात को पढाई न के बराबर थी।  माँ को भरी हुई पाठी या कॉपी दिखाकर सो जाते थे।   माँ भी सोचती थी कितना पढ़ाते है ये मासाब और बहनजी। 

हमारी प्राथमिक शिक्षा ऐसी थी।   आगे और भी पहाड़ो के किस्से और फसक सुनाता रहूँगा।  उसी प्राथमिक शिक्षा की बदौलत आज थोड़ा बहुत लिखना सीख गया हूँ।   

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...