सालो का संघर्ष यूँ ही नहीं हुआ था ,
अलग राज्य की चिंगारी यूँ ही नहीं धधकी थी ,
देश के सबसे बड़े सूबे से अलग होने का निश्चय ,
बातो बातो में नहीं हुआ था।
पहाड़ो की परेशानियां ,
पहाड़ी ही समझ सकता था ,
लखनऊ में बैठ ,
कौन उत्तराखंड की सुध लेता था।
अपने हक़ हकूक के लिए कितनो ने ,
लाल किले में डंडे खाये थे ,
कुछ तो विशेष मांग थी अलग राज्य की ,
रामपुर में यूँ ही गोलियां नहीं खायी थी।
अंजाम तक पहुंची लड़ाई ,
नौ नवम्बर 2000 को जब सत्ताईसवा राज्य बना था ,
कितनी उम्मीदों , कितने सपनो को परवाज मिला था ,
अब चमकेगा मेरा उत्तराखंड , हरेक का मन हर्षाया था।
अपने सपनो का उत्तराखंड बनाने का ये मौका था ,
सत्रह साल बीत गए मगर ,
विकास का रथ न जाने ,
किस ओर भटक गया था।
मच गयी बंदरबाँट हर ओर ,
नेता बनने का सबको शौक चढ़ गया ,
गाँव के गाँव खाली हो गए ,
न जाने कितने गाँवों में ताला लटक गया।
नुमाइंदे हमारे देहरादून जाकर वही के हो गए ,
अब पहाड़ो को कौन चढ़े ,
बड़ी मुश्किलें हैं पहाड़ो में ,
अपनी तिजोरियां भर चैन की नींद सो गए।
सपने सब धरे रह गए ,
पहाड़ हमारे अपनों से ही छले गए ,
टीस सी उठती है मन में ,
क्या इसीलिए हमने " उत्तराखंड " माँगा था ?
बस इसी बात का तो ग़म है। क्यों आखिर क्यों? लेकिन अब तो ईसकी आदत हो गई है। दादी, कुछ कर लो पहाड़ी नहीं सुधरेगा। वो दर्द किसी को मिला ही नहीं। बस कुछ हम जैसे लोगों ने ही सम्भाल रखा है। जय श्री राम।।
ReplyDeleteअतिसुन्दर लाएने सर । शानदार ,जय उत्तराखंड।
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