पहाड़ो की उम्मीद अब भी बाकि है ,
क्यूंकि पहाड़ी अब भी पहाड़ो से दूर नहीं है ,
सुलगती रहती है यादो की चिंगारी अब भी मन में ,
उन हसीं वादियों को छोड़ने की कसक अब भी है।
माना की कुछ कारणों से थोड़ा जुदाई है ,
मगर अब भी पहाड़ो की यादें उसके दिल में बसती है ,
देर सबेर लौटकर आना ही है ,
ऐसा स्वर्ग और कहाँ मिलना है ?
शरीर भले ही कही भी हो ,
मन तो इन पहाड़ो में ही रमता है ,
ठंडी हवा , ठंडा पानी और भी बहुत कुछ ,
हमें पहाड़ो से जोड़े रखता है।
फूलदेई , घी संक्रांत , उत्तरायणी कौतिक
झोड़े चांचरी और होलियो में होआर
कब तक दूर रह सकता है ,
नस नस में बसे है पहाड़ी संस्कार।
दिन दूर नहीं जब पहाड़ का पानी ,
और पहाड़ की जवानी फिर पहाड़ के काम आएगी ,
फिर पहाड़ हरे भरे होंगे ,
क्यूंकि मैदानों में घुटन की उम्र ज्यादा नहीं है।
पहाड़ो की उम्मीद अब भी बाकि है ,
मिटटी की खुसबू अब भी जेहन में ताज़ी है ,
खुलेंगे बंद द्वार फिर से ,
क्यूंकि इन पहाड़ो का कोई सानी नहीं है।
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