जो पहाड़ो में रहते है या पहाड़ो से तालुक रखते है उन्हें तो किल्मोड़ा के बारे में पता ही होगा। मई -जून में जब आप पहाड़ो में जाते है तो सड़को किनारे एक कांटेनुमा झाड़ी में बैंगनी रंग और हरे रंग के छोटे छोटे फल लटके दिखाए दे जाते है। एक ही डाली में हजारो छोटे छोटे लटकते ये फल या तो बन्दर खा जाते है या फिर छोटे छोटे बच्चे स्कूल से आते जाते खाते है। अप्रैल में इसमें पीले फूल खिलने शुरू हो जाते है जो फिर धीरे धीरे फल का आकार ले लेते है।
किल्मोड़ा अपने आप में एक अद्भुत औषिधीय पौधा या झाड़ है जिसका जिक्र आयुर्वेद में तक है। इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। हरे रंग की प्रजाति को दारू हल्दी भी कहा जाता है। यह आपको पहाड़ो में अमूमन 1500 से 2000 तक की समंदर तल से ऊँचाई वाले भाग में मिलता है। किल्मोड़ा की जड़, तना, पत्ती से लेकर फल तक का इस्तेमाल होता है। मधुमेह में किल्मोड़ा की जड़ बेहद कारगर होती है। इसके अलावा बुखार, पीलिया, शुगर, नेत्र आदि रोगों के इलाज में भी ये फायदेमंद है। होम्योपैथी में बरबरिस नाम से दवा बनाई जाती है।
इस पौधे में एंटी डायबिटिक, एंटी इंफ्लेमेटरी, एंटी ट्यूमर, एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल तत्व पाए जाते हैं। डायबिटीज के इलाज में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है
किलमोड़े के फल में पाए जाने वाले एंटी बैक्टीरियल तत्व शरीर को कई बींमारियों से लड़ने में मदद देते हैं। दाद, खाज, फोड़े, फुंसी का इलाज तो इसकी पत्तियों में ही है। डॉक्टर्स कहते हैं कि अगर आप दिनभर में करीब 5 से 10 किलमोड़े के फल खाते रहें, तो शुगर के लेवल को बहुत ही जल्दी कंट्रोल किया जा सकता है।
गढ़वाल में इसे किनगोड़ा कहा जाता है। इसके साथ किलमोड़े के तेल से जो दवाएं तैयार हो रही हैं, उनका इस्तेमाल शुगर, बीपी, वजन कम करने, अवसाद, दिल की बीमारियों की रोक-थाम करने में किया जा रहा है। इसकी जड़ो को खोदकर या लकड़ी को छोटे छोटे टुकड़े बनाकर रात में पानी में भिगोकर फिर उस पानी को पीने से शुगर में अत्यधिक लाभ होता है।
तो अगली बार जब भी आप पहाड़ जाये तो इस किलमोड़े को औषधीय झाड़ के रूप में ही देखिएगा और अगर फल खिले हो तो तोड़ कर जरूर अपने परिजनों तक पहुँचायेगा। यह घरो के आस पास नहीं उगाया जाता क्यूंकि इसमें कांटे होते है। यह अपने आप जंगलो में , सड़क के किनारे उगता है। और मुफ्त में बहुतायत में उपलब्ध रहता है। दुखद बात ये है की इसकी झाड़े अब धीरे धीरे ख़त्म हो रही है और उपेक्षा के अभाव में कही ये प्रकृति द्वारा प्रदत औषिधीय पौधा कहीं गायब न हो जाये।
Superb article
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