जब चीड़ के बगेटो से ,
आग निकलती थी ,
वो हाथ से पहिया घूमता था ,
जो हवा देता था बगेटो को ,
बगेटो की वो आग ,
लोहे को "अद्भुत लाली " देती
थी ,
और आफर फिर लोहा भी नरम कर देता था ,
फिर बनाता था वो दराती , हल के फाल
और धार देता था कुल्हाड़ी और बढियाट में
,
पता था उसको किसमे कितनी धार देनी है ,
और किस में कितना बड़ा -छोटा , मोटा -पतला
बीन देना है ,
किसके घर के बैलो में कितनी ताकत है,
उसी हिसाब से ढालता था हल की फाल ।
कहते है अनपढ़ था वो ,
दुनियादारी से अनजान ,
उसने सीखा था अपने पुरखो से ये हुनर ,
लोहा मुड़ता था उसके इशारो पर ,
गर्म लोहे को पीटकर ,
जब वो पानी में भिगोता था ,
" छै" की आवाज से लोहा भी ,
उसके हुनर के गुण गाता था।
मगर अब न आफर है , न लोहार
सब मशीनों से बनने लगे है ,
दराती
, बढियाट्ट , और हल के फाल ,
सब एक जैसे , एक जैसी धार ,
एक जैसे बीन - बिना ख्याल किये ,
किसका हाथ छोटा , किसका हाथ बड़ा ,
किसके घर के बैल ताकतवर ,
और किसके कमजोर ,
क्यूंकि मशीन नहीं समझती भावनाओ को ,
उसके लिए सब बराबर ,
लोहार समझता था मगर ,
Superb.....
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