हमारा उत्तराखंड अपने लोक पर्वो के लिए विख्यात है। प्रकृति से जुड़े बहुत से लोक पर्वो में से एक महत्वपूर्ण पर्व है - हरेला। हरेला यानि हरियाली। 17 जुलाई को पड़ने वाले हरेले पर्व की शुरुवात आज हरेला बोने से हो जाएगी और फिर दसवे दिन इस हरेले को काटने के साथ " हरेला पर्व" संपन्न हो जायेगा। हरेले से दस दिन पहले " हरेला " बोया जाता है।
रिंगाल की टोकरी या लकड़ी के पटले को साफ़ किया जाता है। मिटटी को छान लिया जाता है। फिर मिटटी , बीज , मिटटी , बीज की प्रक्रिया को छः या सात बार दोहराया जाता है। सात प्रकार के अनाज - जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट बोये जाते है और फिर इससे सूर्य की रौशनी से दूर मंदिर या घर के साफ़ कोने में रख दिया जाता है। रोज़ फिर थोड़ा थोड़ा पानी देकर सिंचित किया जाता है। तीन - चार दिन बाद ही बीज अंकुरित हो जाते है और फिर धीरे धीरे पीले पौधे पनप जाते है। पीले पत्तियां और सफ़ेद तनियाँ - हरेले को मोहक बना देती है। बचपन में हम गाँव में " किसका हरेला " ज्यादा बढ़ गया है , घर घर चक्कर लगाते थे। दसवे दिन इसी हरेले को पतीसा या काटा जाता है। आज भी परम्परा है की " हरेला " परिवार में एक ही जगह बोया जाता है , भले ही परिवार के सदस्य अलग अलग स्थानों में ही क्यों न रहते हो।
लोक पर्वो में " हरेले " का अपना एक उच्च स्थान है। यह पर्व मंगल कामनाओ का पर्व है , हरियाली का पर्व है और प्रकृति के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने का पर्व है। पहाड़ो में सावन के आगमन का प्रतीक है और बड़े - बुजुर्गो से मिलने वाली आशीष का पर्व है।
जी रये, जागि रये..धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये..सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो..दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये'
ईश्वर से कामना है - आपका जीवन हरा भरा रहे।
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