पहाड़ सी ज़िन्दगी हो गयी ,
सब कुछ होते हुए भी कुछ न था ,
सब छोड़कर अकेले उसे ,
पहाड़ ही कर गए थे।
जिद्दी अम्मा भी थी ,
कितना समझाया था उसे ,
चली जा तू भी वही ,
न जाने क्यों पहाड़ों से इतना लगाव था।
हिस्से उसके संघर्ष के क्या आया था ,
रोज़ पहाड़ जैसी मुसीबतें ,
उकाव -हुलार चढ़ते -उतरते ,
हाथों से लकीरें भी गायब थी।
अम्मा रोज़ डूबते सूरज को ,
हुक्का पीते हुए निहारती थी ,
आज रात ही निकल जाये प्राण ,
अगले दिन खेतों में मिलती थी।
अपने बाड़ -खुड़ों से उसे अथाह प्रेम था ,
किसी में पालक , किसी में प्याज ,
नन्ही -नहीं क्यारियों में कपोल फूटती थी ,
अम्मा मन ही मन संतुष्ट होती थी।
लौकी और गद्दुऐ सूखा रखे थे घर की छत पर,
पीली ककड़ियों की बड़िया बनाती थी ,
खुद का कल का पता नहीं था ,
पूरे ह्यून बिताने का इंतजाम करती थी।
एक दिन सच में रात को सोई ,
सुबह उठी ही नहीं ,
बड़िया छत में ओंस में भीग गयी ,
और पालक तुश्यार से मुरझा गयी।
अम्मा चुपचाप चली गयी ,
और सब कुछ छोड़ गयी ,
बच्चे भी अम्मा की चिंता से फरांग हो गये ,
गाँव वालों ने कहा - बुढ़िया तर गयी।
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