Tuesday, 18 December 2018

घर के प्रति प्रेम, समर्पण और सम्मान का प्रतीक - ऐपण



किसी भी क्षेत्र की लोककला तभी तक जीवित रहती है जब तक लोग उस लोक कला को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग समझे।  यह लोक कलाओ पीढ़ी दर पीढ़ी एक हाथ से दूसरे हाथो में स्थान्तरित होते रहती है।   बिना कोई लिखित नियम के ये लोककलाएं सदियों से पल्लवित और विकसित होते रहती है।   उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में एक लोक कला का सुन्दर रूप होता है - ऐपण।   किसी भी शुभ अवसर पर जब घर की दहलीज में ऐपण से चित्र उभरते है तो ऐसा लगता है जैसे ये कला नहीं , जीवन का हिस्सा है। 

ऐपण शब्द का उद्गम संस्कृत शब्द "अर्पण" से है और यह एक तरह से घर की दहलीज को धन्यवाद कहने का माध्यम भी है जो घरवालों को सुरक्षित और संयमित रखता है । इसमें घरों के आंगन से लेकर मंदिर तक प्राकृतिक रंगों जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। जब गेरुवे रंग के ऊपर इस बिस्वार ( सफ़ेद ) से हाथो से लकीरे खींची जाती है तो ऊ , लक्ष्मी माता के चरण , और भी न जाने परिकल्पनाएं उढ़ेल दी जाती है और बन जाता है - लोक कला का एक विशिष्ट नमूना - ऐपण।  अलग अलग मांगलिक अवसरों पर ऐपण को भी अलग तरह से परिकल्पित किया जाता है।   सधी हुई अंगुलियाँ जब गेरुवे या लाल रंग के ऊपर सफ़ेद रंग की लकीरे खींचती है तो जैसे कला जीवंत हो उठती है।  सीढ़ियों पर भी लकीरे उकेरी जाती है। 

खुशकिस्मती है की एक बार विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी इस लोक कला को फिर से जीवंत करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है और इसके परिणाम भी सुखद आ रहे है।  बाजार में रेडीमेड ऐपण प्रिंट भी आने लगे है मगर गाँवों में आज भी गेरुवे और बिस्वार से बनायीं जाने वाली ऐपण कला जीवित है।   वैसे भी हमारी पहाड़ी संस्कृति में बिना ऐपण के कोई नहीं मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है।   जरुरी है की यह परम्परा जीवित रहे और हमारा कर्तव्य है की हम इस कला और इसकी महत्ता को अपनी आने वाली पीढ़ी तक भी पहुचायें। 

घर की दहलीज पर बना ये ऐपण जैसे बोल उठता है की आओ , जजमानो आप सबका स्वागत है। 

जय देवभूमि , जय उत्तराखंड। 

Image Source - Google 

1 comment:

जोशीमठ

  दरारें , गवाह है , हमारे लालच की , दरारें , सबूत है , हमारे कर्मों की , दरारें , प्रतीक है , हमारे स्वार्थ की , दरारें ...