हर भौगोलिक क्षेत्र का अपना एक इतिहास रहा है। भूभाग की सरंचना , रहने वाले लोग , उनका आचार व्यवहार - उनके इतिहास से ही जुड़ा होता है। कुमाऊं का इतिहास नामक पुस्तक बद्री दत्त पाण्डे की रचित पुस्तक है जो उन्होंने 1932 से 1937 के दौरान लिखी है। लगभग सात सौ पृष्ठो से सज्जित इस किताब को पाण्डे जी ने सात भागो में विभक्त किया है। पहला भाग - भौगोलिक और ऐतिहासिक वर्णन , दूसरा भाग - वैदिक और पौराणिक वर्णन , तीसरा भाग -कत्यूरी शासन काल, चौथा भाग - चंद शासन काल , पाँचवा भाग - गोरखा शासन काल , छठा भाग - अँग्रेजी शासन काल और सातवां भाग - मनुष्य , जातियाँ , रस्मो-रिवाज , मंदिर , धर्म आदि के वर्णन से सज्जित है।
इस किताब को लिखने के पीछे का कारण उनका अत्यधिक व्यक्तिगत था। इस बात को वो किताब के आरम्भ में बता देते है की बरेली जेल में कैद के दौरान ही उन्हें सूचना प्राप्त हुई की उनके पुत्र तारकनाथ की बनारस में नहाते वक्त डूबने से मृत्यु हो गयी और इस गम में उनकी पुत्री जयंती देवी ने भी आत्महत्या कर ली तो अपने शोक को मिटाने और ध्यान हटाने के लिए इस पुस्तक की रचना की।
संक्षेप में , श्री बद्रीनाथ पांडे जी का यह मैराथनी प्रयास हम सबके लिए वरदान की तरह है। तथ्य , आँकड़े कितने सच है और ये कहाँ से उद्घृत किये गए है - इसका भी इन्होने जिक्र किया है। कितने सच है और कितने गलत ? ये अलग विषय है। लेकिन कुमाऊं के इतिहास को समझने के लिए इस किताब को हर कुमाउँनी वासी को जरूर पढ़ना चाहिए - ऐसा मेरा व्यक्तिगत मत है।
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