मैं कौतूहलवश उतरा था ,
पहाड़ों से मैदानों में ,
मुझे बहुतों ने बताया था ,
स्वप्न नगरी है वहां ,
वहां हर सपना पूरा होता है ,
ऊंचे -ऊंचे मकान ,
सरपट दौड़ती लम्बी कारें ,
आँखें चौंधियाती रातें ,
मैं थोड़ा उकता सा गया था ,
एक धार से दूसरे धार ताक ,
क्या इतना ही है मेरा आकाश ,
चल दिया इक दिन ,
जो थोड़ा सामान था मेरे पास ,
खो सा गया मैदानों में आकर ,
जीवन बहुत था आसान ,
पल्ले में रुपये - पैसे हो ,
सब सपने यहाँ साकार ,
लगाई जुगत फिर कमाई की ,
मेहनत की अपार ,
न दिन देखा , न रात देखी ,
सहा जगह - जगह दुत्कार ,
मगर पत्थरों से सिर टकराने की ,
पहाड़ों की आदत बहुत आयी काम ,
भूलने लगा अपने गाड़ - गधेरे ,
लगने लगा अब न चढ़ पाउँगा ,
अपने गाँव का धार ,
कुछ मेहनत , कुछ किस्मत ,
कुछ मेरे बुजुर्गों और द्वाप्तो का आशीर्वाद ,
लेने लगे मेरे सपने आकार ,
मगर तब भी सपनों में ,
अक्सर आता रहा 'मेरा पहाड़ ',
भागमभाग तेज हुई ,
कदम मैं भी बढ़ाता गया ,
शहरी दौड़ में न जाने मेरा तन ,
कब शरीक हुआ ,
जोड़ -तोड़ कर कुछ हासिल तो किया ,
मगर वो सुकून को मेरा मन तरस गया ,
वो रास्ते टेढ़े -मेढ़े , उबड़ -खाबड़ ,
मेरे गाँव के जो मेरे घर तक जाते थे ,
वो नदी जिसकी कल -कल जगाती थी ,
वो हवा जो साँय - साँय बहती थी ,
वो पानी जो अमृत सा था ,
वो फूल , ताजे फल ,
शहरों में सब मोल था ,
जो मैं छोड़ आया था पीछे ,
अब उसी को खरीदने ,
पहाड़ छोड़कर शहर आ गया था।